" I always like walking in the rain, so no one can see me crying" ।
सुप्रसिद्ध हास्य अभिनेता, चार्ली चैपलिन द्वारा कही गयी यह उद्धरण रंगोली को बहुत प्रिय है। उसे भी बारिश में भींगना इसलिए पसंद है, क्योंकि उसके आँखों के पैमाने से छलकता हुआ दर्द सावन के बहते पानी में एकाकार होकर उसे एक अजीब सा सुकुन दे जाया करता है।
अब उसकी इस टूटी- फूटी जिन्दगी में इन झरते हुए अश्रुधाराओं जितना अजीज हमदम कोई दूसरा भी तो न था, उसके पास!!
नहीं -नहीं रंगोली की जिन्दगी हमेशा से ऐसी नहीं थी। एक कान्वेन्ट स्कूल की बारहवीं कक्षा मे वह पढ़ती थी, जिस दिन उसकी माँ की मृत्यु हो गई थी। इस असार- संसार में माँ से अधिक सगा दूसरा कोई भी कभी नहीं होता है। सो उसका भी कोई न था। बाप तो उसके जन्म लेने से पहले ही इहलोक त्याग चुका था। ऐसे में सौतेले बाप से और इससे अधिक उम्मीद भी क्या की जा सकती थी?
शाम होने से पहले ही आज रंगोली सज- धजकर तैयार होकर खिड़की पर खड़ी थी। नेट वाली झीनी साड़ी, बिना बाजू का ब्लाउज उसके सुंदर गोरे रंग पर खूब खिलता था। बालों को पीछे की तरफ खींचकर बनाया गया एक बड़ा सा जुड़ा, जिसमे लगी मोगरे की माला से भीनी- भीनी खुशबू इस समय निकल रही थी। हाथ में मैचिंग काँच की चुड़ियाँ और कानों में सस्ते झुमके भी उसने पहन रखे थे। साथ ही पैरों पर नकली चांदी के पाजैब भी मौजूद था। कुल मिलाकर उसकी मोहिनी छवि को जो कोई भी युवक एक नज़र देख लेता था, उसके लिए आँखें फेर लेना नामुमकिन था।
आज सुबह से ही उसकी तबियत थोड़ी खराब थी, परंतु उसका काम ही ऐसा था कि छुट्टियाँ नहीं मिला करती थी कभी भी। दोपहर से ही तेज बारिश हो रही थी। आज ग्राहकों की आने की उम्मीद बहुत कम है। शायद ऐसे ही ऊपरवाले उसकी छुट्टियाँ मंज़ूर करते रहते हैं। देह को भी ज़रा आराम मिल जाता है इसी बहाने!
बारिश में भींगना उसे बचपन से ही बहुत पसंद था। न जाने क्यों आज बारिश का मौसम देखकर उसे रह-रहकर अपना बचपन याद आ रहा है। बचपन में जब वह ननिहाल जाती थी तो गाँव के दूसरे बच्चों के साथ मिलकर वह कागज़ की कश्तियाँ चलाया करती थी। बच्चे उन कश्तियों में अकसर अपना नाम लिखकर पानी में डाल देते थे। जिस नाम की कश्ती अधिक देर तक तैरती रहती इस प्रतियोगिता में उसी की जीत समझी जाती थी।
इस रेस में अकसर उसका प्रतिद्वन्द्वी समर नाम का एक लड़का हुआ करता था। गोरा- चिट्ठा ऊँचे कद वाला समर जब भी जीत जाता था उसकी बड़ी- बड़ी आँखें उदासी में डूब जाया करती थी। जिस दिन रंगोली जीतती थी मानों वह बड़ा खुश होता था!
एकदिन तेज आँधी के समय दोनों जब पेड़ से गिरे हुए आम चुनने गए तो राह भटक गए थे! काफी देर तक, तेज बारिश होने के कारण उन्हें पेड़ के नीचे इंतजार करना पड़ा था। इतने छोटे भी नहीं थे तब वे दोनों -- यही कोई तेरह- चौदह वर्ष के रहे होंगे!
उन दोनों नवयुवकों के मन में एक- दूसरे के लिए नयी भावनाएँ जन्म ले रही थी, जिनसे दोनों ही अनभिज्ञ थे। परंतु समर ने उसदिन उसका हाथ पकड़कर वचन दिया था कि वह एकदिन उसे अपना बनाएगा! आसमान से गिरती हुई बूँदे आज भी उसी का साक्षी है।
परंतु आज की यह रंगोली भी वह रंगोली कहाँ रही! बारिश का कितना पानी बह गया है उसके जीवन में उस दिन के बाद। पिछले आठ वर्षों से फिर वह इस जिन्दगी में धीरे- धीरे अभ्यस्थ हो गई। होना ही पड़ा था! और क्या करती?
आँखों में पानी भरे वह बरसते हुए पानी को देख रही थी। जरा सी बारिश कम होते ही न जाने कहाँ से कुछ बच्चे वहाँ आ गए थे और वे भी उसी तरह कागज से बनी कुछ नावें चलाने लगे, जैसे कि कभी वे लोग चलाया करते थे!!
अरे, इन कश्तियों पर तो नाम भी लिखा हुआ है!! बाॅल्काॅनी से अपना आधा देह बाहर निकाल झुककर वह उन नामों को पढ़ने की कोशिश करने लगी-- रवि, ऋचा, संगोली! ---संगोली?!!
"संगोली यानी समीर+ रंगोली", उसने कहा था। रंगोली उन बच्चों को बुलाकर पूछने लगी कि संगोली उनमें से किसका नाम है? बच्चे अचानक उसके जैसी मेक- अप और कपड़े वाली औरत को देखकर डर गए थे। वह बिना कुछ उत्तर दिए ही जल्दी वहाँ से भाग खड़े हुए थे। अनजाने में रंगोली के मुँह से एक सर्द आह निकल गई थी।
" संगोली यानी समीर+ रंगोली, तभी उसके पीछे से किसी ने कहा। चौंककर उसने मुड़कर देखा तो बरसो बाद समीर पीछे खड़ा होकर मुस्कुरा रहा था!
" समीर, तुम यहाँ!"
" तुम्हें लेने आया हूँ। वचन दिया था न कि एकदिन तुम्हें अपना बनाऊँगा!"
" लेकिन समीर, अब तो मैं किसी एक की नहीं हो सकती! तुमने आने में बहुत देर कर दी। मैं अब सार्वजनिक संपत्ति हो चुकी हूँ।" और वह रोने लगी।
समीर ने उसके माथे पर हाथ रखकर कहा,
" माफ करना, मैंने आने में देर कर दी, परंतु तुम सार्वजनिक नहीं हो, अब आज़ाद हो। चाहो तो किसी से भी विवाह कर सकती हो। मैंने मौसी को मोटी रकम देकर उनसे तुम्हारी आज़ादी खरीद ली है। चलो, अब घर चलते हैं!"
" नहीं, समीर मेरे इस देह को न जाने कितने लोगों ने रौंदा है। मैं किस मुँह से अब तुम्हारे घर चलूँ, बोलो?" और वह रोती हुई समीर के पैरों के पास बैठ गई।
इस बार समीर भी उसके सामने उकड़ू होकर बैठ गया और बोला,
" रंगोली तुमने जो किया वह तुम्हारी मजबूरी थी। तुम्हारी देह चाहे जैसी भी हो, परंतु मैं जानता हूँ कि तुम्हारी आत्मा अभी भी पवित्र है! तुम्हारा दिल आज भी मेरे लिए ही धड़कता है!"
" परंतु समाज, समीर?? उसको क्या जवाब दूँगी? जिसे इतना चाहती हूँ, उसकी इतनी बड़ी क्षति नहीं कर पाऊँगी! नहीं, समीर, तुम चले जाओ, यहाँ से!! मुझे इसी कीचड़ में पड़े रहने दो।"
समीर अब एक छोटी सी सिंदूर की डिबिया निकालकर रंगोली के सामने रखता है और कहता है,
" समाज से मैं निपट लूँगा। एकबार सिर्फ हिम्मत करके देखो, रंगोली! एक अच्छी- सी जिन्दगी इस कोठे से बाहर तुम्हारे लिए इंतज़ार कर रही है।"
रंगोली से जब कोई नहीं जवाब आया तो समीर उठकर खड़ा हो गया और धीरे से बोला,
" खैर, तुम्हारी मर्ज़ी!"
और वह कमरे से बाहर निकलने को हुआ।
इसी समय रंगोली आकर उसका रास्ता रोककर खड़ी हो गई। उसके हाथ में वही सिंदूर की डिबिया थी। समीर ने उससे एक चुटकी लेकर उसकी माँग में भर दिया।
इसके बाद समीर का नीला शर्ट आँसुओं से भींग उठा था!
कहते हैं कि एक चुटकी सिंदूर की कीमत यदि जाननी हो तो एक कोठेवाली से पूछो; उससे नहीं, जिसकी माँग इससे सजी हुई हो!
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
बहुत ही सुंदर।
बहुत ही सुंदर।
Wah kya bat h.....
अखिलेश जी और नेहा जी, रचना पसंद हेतु आप दोनों का दिल से आभार🙏
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