ल्हासा नहीं-- लवासा: एक समीक्षा
लेखक: सचिन देव शर्मा
प्रकाशक: हिन्दी युग्म ब्लू
मूल्य : 125 रु
"ल्हासा नहीं लवासा" एक यात्रा वृत्तांत है जिसमें लेखक द्वारा अपने परिवार, दोस्त, दोस्तों के परिवार के साथ गाड़ी द्वारा ( roadtrip) किए गए कुछ यात्राओं का बड़ा मनमोहक वर्णन है। अध्यायों के नाम भी यात्रा- स्थलों के आधार पर ही हैं-- यथा, 1) जमटा में सुकून के पल,2) ल्हासा नहीं लवासा, 3) ये लाल टिब्बा क्या है? ( मसूरी) 4) कोटद्वार की यात्रा, 5) जयपुर कब जा रहे हो?
इस तरह पाँच अध्यायों में पाँच स्थान विशेष का अत्यंत मनोरम एवं भावुक वर्णन है। कई स्थानों पर लेखक बिलकुल भावुक होकर प्रकृति- सौन्दर्य में बिलकुल खो से जाते हुए नज़र आते हैं तो कई जगह पर उनका यात्री सत्ता ही अधिक मुखरित हुआ है।
लेखक सचिन शर्मा "यात्रावृत्त" नामक ब्लाँग लिखते हैं, परंतु जैसा कि किताब के आरंभिक पृष्ठों में उल्लेख किया गया है," Travelling: It leaves you speechless, then turns you into a storyteller,"-- सो लेखक भी यात्रा करते हुए इस किताब के ज़रिए एक कहानीकार के रूप में तब्दिल हो चुके हैं।
अब एक कहानीकार को सहृदय तो होना पड़ता है। साथ ही मनोविज्ञान का भी वह पारखी होता है। रिश्तों की पहचान भी उसे खूब होती है, तभी तो लेखक लिख पाया--" जब सुख के साथ- साथ दुख भी साझा किया जाने लगे तो समझो रिश्ता परिपक्वता की ओर बढ़ चुका है।"
अपनी घुमक्कड़ी के बारे में वे लिखते हैं--
" एक अक्तूबर की छुट्टी और ले ली तो शनिवार, इतवार की छुट्टी मिलाकर चार दिन की छुट्टी बन गई। इतना तो बहुत है दिल्ली वालों के घूमने के लिए।" इस बात से तो कोई भी "दिल्ली वाला" असहमत न होगा जो अकसर वीकेन्ड ट्रिप पर जाना पसंद करता है। मेरा यह व्यक्तिगत अनुभव भी है कि कैसे लाँग वीकेन्ड पड़ते ही दिल्ली के रेलवे स्टेशन और हवाई अड्डे पर भीड़ों का जमघट लग जाया करता है। लोग- बाग अपने परिवार और लगेज के साथ ट्रीप पर निकल पड़ते हैं।
जगह- जगह लेखक ने अपने गंतव्य की सही दूरी और स्थान विशेष के सभी दर्शनीय स्थलों का सविस्तार से वर्णन किया है।
एक उदाहरण से बात स्पष्ट हो जाएगी--
" काला अम्ब से नाहन की दूरी कोई अठारह किलोमीटर रही होगी। मोगीचंद, सैनवाला, अम्बवाला, कांशीवाला व कई और छोटे- मोटे गाँव पड़ते हैं काला अम्ब और नाहन के बीच।"
हर एक स्थान का वर्णन करते समय लेखक उस स्थान विशेष की धार्मिक मान्यता और इतिहास को भी साझा करते हुए नहीं भूलते हैं। इससे पता चलता है कि किसी भी यात्रा के पहले वे कितना" होमवर्क" करते है और करना पसंद हैं। अकसर उनकी यात्राओं में उनके साथ उनकी बेटी मनस्वी भी होती हैं। उसकी जिज्ञासु प्रवृत्ति को शांत करने के खातिर भी शायद एक पिता को अपना होमवर्क बहुत ध्यानपूर्वक करना पड़ता होगा।
लेखक की वर्णन शैली इतनी अच्छी है कि पढ़ते हुए आँखो के आगे उस स्थल का सुंदर चित्र खींच जाता है और ऐसा लगता है कि जैसे थोड़ी देर के लिए हम स्वयं वहाँ उपस्थित हो गए हैं।
मसूरी की यात्रावृत्त में लेखक बताते हैं कि कैसे प्रसिद्ध लेखक रस्किन बाॅन्ड " कैम्ब्रिज बुक स्टोर" में हर वीकेन्ड को आते हैं और उत्सुक रीडर्स को उनका ऑटोग्राफ लेने को मिलता है। यह कहानी हमने भी सुन रखी थी। परंतु खेद का विषय यह है कि अपनी कोशिशों के बावजूद लेखक उनसे मिल नहीं पाते हैं और उनकी यह इच्छा अधूरी रह जाती है।
अंत में यही कहूँगी कि यह पुस्तक पढ़ने में मुझे अत्यंत आनंद आया, खासकर इस समय जब करोना के कारण हम सबकी घुमक्कड़ी में एक तरह से ब्रेक लग चुका है, वहीं इस पुस्तक के ज़रिए उन स्थलों का दुबारा मानस- भ्रमण करने में बहुत खुशी मिली। लवासा के अतिरिक्त सभी अन्य जगहों पर जा चुकी हूँ। हाँ, जमटा नहीं गई कभी परंतु नाहन तक का चक्कर लगा आई हूँ। इसलिए भी यह किताब बहुत अच्छी लगी।
जिन पर्यटक स्थलों पर आप जा चुके हो उसका वर्णन पढ़ने में दिल को बहुत खुशी मिलती है। ऐसा लगता है कि पुनः हम उस जगह पर सशरीर पहुँच चुके हैं। सो, मुझे यह किताब बहुत पसंद आई।
आप भी जरूर पढ़िए। घर बैठे मानसिक तौर पर यात्रा करने के लिए यह बहुत ही अच्छा अवसर प्रदान करता है।
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