वह एक किसान का बेटा था। नाम था उसका सुमेरसिंह। अमृतसर से तकरीबन सौ किलोमीटर दूर पश्चिम की दिशा में उसका गाँव था भीमपुर। उसके दारजी इस गाँव के एक संपन्न किसान थे। बीस बीघे की जमीन पर गन्ना, मकई और गेहूँ की खेती होती थी। अच्छी बारिश मिलने और नहर के नज़दीक होने के कारण पैदावार हर साल अच्छी हो जाती थी। अतः खाने- ओढ़ने की कभी कोई कमीं न थी इस परिवार को। सुमेर और उसकी छोटी बहन सुनैना, उसकी बीजी और दारजी कुल मिलाकर ये चार लोग ही थे परिवार में। उनमें भी छोटी उम्र में ही सुनैना की शादी करा दी गई थी। पड़ोस के गाँव से उसके लिए एक अच्छा सा रिश्ता आया था। दारजी और बीजी ने सोचा कि कभी न कभी बेटी को तो ब्याहनी ही पड़ेगी। फिर रोज- रोज ऐसे रिश्ते नहीं मिलते। लड़का खाते- पीते परिवार से था। परंतु उससे भी अहम बात यह थी कि बेटी को ज्यादा दूर नहीं भेजना पड़ेगा। परसाल सुनैना की शादी हुई थी और इस साल वह एक प्यारी सी गुड़िया की माँ भी बन गई। यहाँ तक तो सब कुछ ठीक था। परंतु सुमेर को बचपन से ही पढ़ने- लिखने का काफी शौक था। वह कम उम्र से ही एक कृषि- वैज्ञानिक बनने का सपना देखा करता था। पढ़ाई में इतना अव्वल था कि जिन्दगी की हर इम्तिहान में उसे वृत्ति मिले। और उसकी पढ़ाई उसी पैसे से ही पूरी होती गई। दारजी से शिक्षा के लिए पैसे माँगने पड़ते थे। इधर उसके दारजी यह चाहते थे कि उनके पीछे सुमेर ही घर की जिम्मेदारी और खेती- बारी संभाल ले। बीजी की भी ऐसी ही कुछ तमन्ना थी ।साथ में वे यह भी चाहती थीं कि उनके बेटे की जल्दी से शादी हो जाए ताकि एक सुंदर सी सजी- धजी बहू इस आंगन में घूमे। इसके साथ ही बहू के ऊपर अपनी सारी जिम्मेदारियाँ हस्तांतरित करके वे निश्चिंत होना चाहती थी। इस हेतु एक लड़की भी उन्होंने देख रखी थी!! फिर तो, पोते- पोतियों को कहानी सुनाकर , खेत बीच घुमाकर और ग्रंथ साहिब का पाठ करके उनके दिन मजे से निकल जाएंगे। परंतु इंसान सोचता कुछ है और होता कुछ और ही है। बारहवीं पास करके आगे की पढ़ाई के लिए सुमेर जालंधर की कृषि विश्वविद्यालय में अपना दाखिला करा देता है। वीरजी और बीजी की कोई खास इच्छा नहीं थी कि गाँव का ल्ड़का शहर जाकर पढ़ाई करें। लेकिन वीर जी सुमेर का आग्रह देखकर आखिर मान गए! परंतु बीजी अड़ गई। उन्हें बार- बार यह लग रहा था कि लड़का शहर जाएगा तो हाथ से निकल जाएगा। सुमेर कई रोज से अपनी बीजी को मनाने की कोशिश करता रहा पर वह नहीं मानी। इसके बाद सुमेर ने जब इसके पीछे खाना- पीना छोड़ दिया, तब बीजी को झुकना पड़ा। अंत में वे एक शर्त पर मानी कि उसकी सहेली जसपिन्दर की बेटी सिमरन से पहले सगाई करनी पड़ेगी, उसके बाद सुमेर शहर जा सकता है। अब सुमेर को पढ़ाई करके डिग्रियाँ हासिल करने की इतनी ललक थी कि वह इस शर्त भी तैयार हो गया। सिमरन से सगाई के अगले दिन ही उसने टिकट कटा लिया। किसी तरह सगाई करने के बाद वह गाँव से निकल पाया था। गाँव के बड़े- बूढ़े और उसके दोस्त उसे नज़दीक के बस अड्डे तक छोड़ने आए। सुमेर वीरजी और बड़ों से पैरी पौना करके एवं अपने साथियों से गले मिलकर बस पर बैठ गया। बारिश का मौसम था। रात से ही काले- काले बादल छाने लगे थे। जिस समय सुमेर बस में बैठा मूसलाधार बारिश होने लग गई थी। ऐसा लग रहा था कि प्रकृति भी उसके गाँव छोड़कर जाने से दुःखी होकर आँसू बरसाने लगी है। उसे बारिश का मौसम बहुत पसंद था। बारिश में खेतों की मेड़ पर, कीचड़- मिट्टी में सनकर फसल की देखभाल करने में उसने दारजी का कितनी ही बार मदद की थी। उसे सबसे अधिक पसंद था पहली बारिश से जब मिट्टी गिली हो जाती थी, तो उस गिली मिट्टी की सोंधी खुशबू। आह!! कितना अपनापन था उस सोंधी खुशबू में। बिलकुल अपनी बीजी की हाथ से बनी लस्सी के जैसे ही। इस समय भी उसे बस की विंडो वाली सीट मिली थी। और वह खिड़की से अपना सर निकाल कर बारिश में भींगने लगा, और गीली मिट्टी से हौले- हौले उठती उस सौंधी सी खुशबू को अपने फेंफरों में भरने लगा! होस्टल जाकर शुरु- शुरु में उसका मन नहीं लग पाया। गाँव कीमिट्टी की यही सौंधी खुशबू के लिए वह तरस जाया करता था। यहाँ की गिली मिट्टी में उसे वह वाली खुशबू नहीं मिल पाती थी। इसके बाद होस्टल के खाना खाकर उसकी तबीयत खराब हो गई। बीजी के हाथ से बने परांठे उसे उल्टे गाँव की ओर खींचने लगा। परंतु अपनों से इतनी लड़ाई करके वह गाँव से निकला था, अब अपनी मंजिल को प्राप्त किए बिना वह वहाँ लौटना नहीं चाहता था! पहले दिन काॅलेज पहुँचकर उसने पाया कि उसे आने मे काफी देर हो चुकी है। इस सत्र की कक्षाएँ लगभग दो महीने पहले ही शुरु हो चुकी थी। वह नया था, उसके कोई दोस्त न थे इसलिए नोट मिलने में काफी असुविधा होने लगी थी। कोई और उपाय न देखकर वह सीधे अध्यापकों के पास नोट लेने चला गया। सबने उसकी रह हिम्मत देखकर उसे ग्रामीण समझकर उपेक्षा कर दी। परंतु एक अध्यापिका ऐसी थी जिन्हींने उसकी पढ़ने की लगन देखकर उसकी मदद करने को तैयार हो गई। अब वे अध्यापिका जिनका नाम कोमलप्रीत था वे सुमेर को अपने खाली समय और काॅलेज के बाद एक घंटा रोज़ एक्ट्रा क्लास देने लगी। कोमल सिर्फ नाम से ही कोमल न थी, चेहरे से ही एक कोमलांगी स्त्री थी। वह अभी- अभी लेकाचरार बनी थी। वह स्वयं भी काफी मेहनती थी इसलिए मेहनती छात्र उसे पसंद आते थे। इस तरह पढ़ाते- पढ़ाते सुमेर और कोमल दोनों एक दूसरे के हृदय के नजदीक भी आने लगे थे। कोमलप्रीत सुमेर से सिर्फ दो वर्ष ही बड़ी थी, परंतु सुमेर उसका विद्यार्थी होते हुए भी उससे काफी परिपक्व था। उसकी बातें सुनकर कोमल बहुत खुश हो जाया करती थी। उसे जब भी सलाह की जरूरत होती थी, वह सुमेर से पूछ लेती थी। अब कोमलप्रीत को पीएचडी करने अमरीका जाना था, परंतू उसके माता - पिता ऊसकी शादी के लिए उसपर दवाब डाल रहे थे। उसने सुमेर से पूछा तो उसने कहा, " शादी तो बाद में भी की जा सकती है, पहले अपने सपनों को पूरा कर लेना चाहिए।" फिर दोनों ने मिलकर यह तय किया कि सुमेर का मास्टर्स समाप्त होते ही रिसर्च हेतु साथ में अमरीका जाएंगे। वहीं दोनों शादी करके अपना घर बसा लेंगे। सुमेरसिंह ने अब तक उसे सिमरन से हुई अपनी सगाई की बात न बताई थी, शायद वह स्वयं भी इस बात को भूल चुका था। इसी बीच सुमेर अपने अंतिम वर्ष के आठवें सेमिस्टर समाप्त होने पर छुट्टी लेकर कोई चार साल बाद गाँव जानेवाले था। घर से समाचार आया था कि बीजी की तबीयत कुछ ठीक नहीं है, वे अपने पुत्तर से एकबार मिलना चाहती हैं। इसलिए दारजी ने फोन करके उसे वहाँ बुलाया था। कोमलप्रीत जो शहरी लड़की थी उसने भी उसके साथ चलने का आग्रह किया। बोली, " सुमेर, मैंने कभी अपने पंजाब के गाँव नहीं देखे हैं। शहरों में ही मेरा पूरा जीवन बीत गया। अब अगले वर्ष जब हम देश छोड़कर चले जाएंगे तो मुझे इस साल अपना गाँव दिखा दो।" " ठीक है, फिर! मेरे साथ गाँव चलो। लेकिन---" " लेकिन क्या?" " मैं यह सोच रहा था कि तुम वहाँ adjust कर पाओगी क्या?" " क्यों नहीं? जहाँ तुम, वहाँ मैं।" परंतु कोमल ने जितना आसान समझा था, वैसा वहाँ वाकई भी न था। बस से उतरते ही उसके सैण्डल कीचड़ में अटक गए। मुश्किल से उसे निकाला। फिर बरसात में खेतों की मेड़ पर चलते हुए उसने अपना संतुलन खो दिया और वह धड़ाम से गिर पड़ी। बीजी जब अपने पुत्तर का स्वागत करने द्वार पर आई तो साथ में आद्योपांत कीचड़ से सने हुए एक लड़की को खड़ा देखकर अपनी संगी- साथियों के साथ जोर- जोर से हँस पड़ी। इसके बाद कोमल को गाँव का पानी और मच्छर दोनों ही सूट नहीं किया और वह दो दिन के बाद ही वहाँ से भाग आई। सुमेर ने अमरीका जाने की जब बात की तो दार जी और बीजी दोनों ने ही मना कर दिया। बीजी चाहती थी कि वह जल्दी से ब्याह करके घर संभाले। क्योंकि आजकल उनके जीवन का कोई भरोसा नहीं था। वे अकसर बीमार रहा करती थी। दारजी की भी उम्र हो चली थी। परंतु सुमेर उनसे झगड़ा करके शहर चला आया। फिर वह दिन भी आ गया जब वह और कोमल को अमरीका जाना था। यू एस ए की फ्लाइट दिल्ली से पकड़नी थी। इस बीच सुमैर ने सिमरन से अपनी सगाई तोड़ दी थी और कोमल से दुबारा सगाई कर ली थी। बीजी और दारजी से भी उसका इस पर झगड़ा हो गया था। दिल्ली जाते समय कोमल ने देखा कि सुमेर बड़ा चुप- चाप है। उसने उससे पूछा भी पर कोई जवाब न मिला। एयरपोर्ट के रास्ते मे जब वे थे तभी बारिश होनी शुरु हो गई थी। पिछलीबार की तरह सुमैर ने टैक्सी का शीशा उतारकर अपना सिर बाहर निकालकर सौंधी मिट्टी की खूशबू लेने लगा। पिछली बार वह गाँव छोड़कर शहर आया था, और इसबार वह अपना गाँव बिजी, दारजी, अपना खेत- खलिहान सौंधी मिट्टी की खुशबू के साथ ही अपना वतन छोड़कर जा रहा था। उसने अपने आप से पूछा क्या देश में रहकर पढ़ाई नहीं की जा सकती है? वैज्ञानिक बनने के लिए दूसरे देश मे जाकर बसना जरूरी तो नहीं है। अपने देश में रहकर भी तो विज्ञान की साधना की जा सकती है? फिर जिस देश का खाकर, जहाँ पलकर वह बड़ा हुआ है, उस सोंधी खुशबू का कुछ तो कर्ज़ होगा उसके ऊपर भी? और वह सुमेरसिंह सैनी टैक्सी से उतरकर एयरपोर्ट के अंदर न जाकर उल्टी दिशा में चल पड़ा। कोमलप्रीत उसे पीछे से आवाज़ देती रह गई।
सौंधी खुशबू
गाँव की मिट्टी की सौंधी खुशबू
Originally published in hi
Moumita Bagchi
19 Jul, 2020 | 1 min read
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Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
क्या बात है मौमिता जी बहुत अच्छी कहानी
Thank you 😍🥰, Babita ji 🙏
बेहतरीन लेखन शैली, उम्दा कथानक
Thank you, Archana ji🙏
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