सुजान सिंह तकरीबन चालीस- पैंतालिस साल का एक हट्टा कट्ठा सरदार था। उसने अपनी गड्डी को इतना तेज़ भगाया कि पौने दो घंटे में ही आशीष दिल्ली बार्डर पार करके हरियाणा के अंदर पहुँच चुका था।
परंतु कहते हैं न, कभी- कभी कश्तियाँ किनारे पहुँचकर भी डूब जाया करती हैं? आशीष की जिन्दगी का यह दिन भी कुछ-कुछ वैसा ही था। एक ओर उम्मीद से भरपूर पर आगे क्या होने वाला है-- इसकी कोई खबर नहीं! होनी को भला कभी कोई रोक पाया है कभी?!!
अब तक सब कुछ ठीक-ठाक ही चल रहा था। रास्ते में आज ट्राॅफिक भी बहुत कम थी। सुजान सिंह की गड़्डी इस समय हाइवे पर एक सौ बीस-तीस किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से बराबर भागी जा रही थी।
बीच में जब आशीष को भूख लगी थी तो उसने ड्राइवर जी को गाड़ी रोकने के लिए कहा था, जिसे सुन कर सुजान सिंह उससे बोला था-
" बाहर धाबे का खाना क्या खाओगे,साहब? मेरी बोट्टी के हाथ का नरम नरम पराँठा खाओ! शुद्ध देसी घी की ऐसी खुशबू आपने बहुत सालों तक नहीं सूँघी होगी!"
इतनी आत्मीयता भरे शब्दों से आशीष का दिल अंदर तक भींग गया था। इसी अपनापन और भाईचारे के लिए तो हमारा देश इतना मशहूर है!
अब तक बातों- बातों में सुजानसिंह ने आशीष के बारे में इतनी सूचना तो इकट्ठी कर ही ली थी कि वह बरसों बाद देस लौटकर आया है और बीमार पिता की तीमारदारी करने जा रहा है!
सुजानसिंह ने इसके बाद एक अपनी जान-पहचान वाली पंजाबी ढाबे पर सिर्फ पाँच मिनट के लिए गाड़ी को रोक कर आशीष को बढ़िया वाली पंजाबी लस्सी भी पीला दी थी।
और स्वयं थोड़ा हल्का होकर फिर उसने गाड़ी रोहतक के लिए बढ़ा दी थी।
पराँठे सचमुच बड़े ही स्वादिष्ट थे। देसी घी के साथ उसमें सरदारनी के हाथों का जादू और सरदार के लिए ढेर सारा प्यार भी जो मिला हुआ था। खाकर आशीष को बड़ा मज़ा आया।
सुजानसिंह बोला कि वह गाड़ी चलाते समय कुछ नहीं खाता है तो सारे आठ- दस पराँठे आशीष अकेले ही चट कर गया।
उसे भूख भी बड़ी जबरदस्त लगी थी। अब याद आया कि सुबह फ्लाइट में उठते ही वह सो गया था, इसलिए ज्यादा कुछ खा नहीं पाया था। सोचा था कि उतर कर दिल्ली एयरपोर्ट में कुछ खा लेगा, परंतु फिर तो उसे इसके लिए समय ही न मिल पाया था!
करीब दस घंटे से उसका पेट भूखा था। अब पराँठे खाकर वह कुछ अच्छा महसूस करने लगा था।
पेट भर जाने से उसका मूड भी खुशी वाला हो गया था। चेहरे पर छाई तनाव भी थोड़ा अब कम होने लगा था। वह धीरे- धीरे सुजान सिंह से बातचित करने लगा। उससे उसके घर- परिवार के बारे में पूछने लगा।
सुजानसिंह बड़ा ही ज़िन्दादिल इंसान था। बात- बात पर अट्टहास कर सकता था। जिससे मालूम होता था कि उसका दिल बिलकुल साफ है। उसकी बातों को सुनकर आशीष भी लंबे समय के बाद हो- हो कर के हँस पड़ा था!
आशीष इन्हीं सुखद् अनुभूतियों के मध्य था और उनकी गाड़ी दिल्ली रोहतक हाईवे पर तेजी से भाग रही थी कि बिन बादल बारिश की भाँति अचानक गाड़ी का एक टायर पंचर हो गया।
किरकिर्----किच्च्च की आवाज़ निकाल कर गाड़ी हाइवे पर रुक गई। सुजानसिंह धीरे- से गाड़ी को सड़क के किनारे लाकर हौले से ब्रेक दबा दिया। फिर उतर कर देखने गया कि कौन सा टायर बैठ गया!
सुजान सिंह इसके बाद गाड़ी में से स्टेपनी निकाल कर ले आया और खुद ही सड़क के किनारे बैठ कर टायर बदलने लगा। लेकिन अब उसने गौर किया कि स्टेपनी की हवा तो पहले से ही निकली हुई थी!!!
काफी समय से इस गाड़ी का पंचर नहीं हुआ था तो स्टेपनी की जरूरत न पड़ी थी। इसलिए सुजानसिंह उसमें हवा भरवाना ही भूल गया था!
"हे ईश्वर! अब क्या होगा!" हताश आशीष को कुछ भी नहीं सूझ रहा था।
रात के करीब दस बज रहे थे। हाइवे लगभग जनशून्य था।
इक्के दुक्के ट्रक की हेडलाइट कभी-कभी दूर से नज़र आ रही थी। फिर वही ट्रक फटाफट उनके पास से होकर गुज़र जा रही थी। किसी के पास इतना समय न था कि थोड़ी देर रुक कर उनका हाल चाल पूछ लेते! या उनकी विपत्ति में कुछ मदद कर देते! हाइवे में टायर पंचर हो जाना इतनी ही आम बात थी कि किसी की नज़र उन पर पड़ी ही नहीं! हालाँकि आशीष को ऐसी परिस्थिति का सामना पहले कभी न करना पड़ा था!
उसके फोन में नेटवर्क तो पहले से ही गायब था। अब इस वीराने सी जगह पर सुजानसिंह का वाईफाई भी गायब हो गया था। अतः चाह कर भी मम्मी को फोन करके अपनी हालत वह नहीं बता पा रहा था!
सुजान सिंह ने तब भी आशीष से कहा,
"आप चिंता न करें, साहब!!सामने ही मेरे जान- पहचान की एक पंचर रिपेयर शाॅप है । वहाँ चलते हैं। आशा है कि कुछ मदद जरूर मिल जाएगी।"
इतना कहकर सुजान उस पंचर टायर से ही गड्डी को धीरे- धीरे घसीटता हुआ उस दुकान की दिशा में चल पड़ा।
परंतु उस दुकान तक पहुँचकर पता चला कि वह पंचर वाला दुकान में ताला लगाकर कहीं जा चुका है!!
दुकान के जबकि अंदर से रोशनी की एक रेखा बाहर आ रही थी। इसलिए उन लोगों ने सोचा कि वह दुकानदार पास ही कहीं गया होगा। अतः सुजानसिंह वहीं पर थोड़ी देर के लिए रुक गया। कोई दूसरा उपाय भी कहाँ था?
दुकान के सामने मिट्टी के घड़े में पानी रखा हुआ था। सुजानसिंह ने घड़े में से थोड़ा पानी निकाल कर पी लिया।
आशीष ने उस आधी रौशनी में ध्यान से देखा तो गड्ड़ी की दूसरी टायर की हवा भी उसे बहुत कम लगी। पहले वाले टायर पर कील चुभा पड़ा था। जो इस समय साफ नज़र आ रहा था।
आशीष ने सुजान को बुलाकर किल दिखाया। उसने तो अपना सिर ही पकड़ लिया।
गनीमत यह हुई थी कि दुकानदार इसी समय लौट आया था। उसने झटपट स्टेपनी में हवा भर दी और दूसरा टायर भी दुरुस्त कर दिया।
परंतु उसने कहा,
" बाबू, गड्डी तो आपकी अब चलने लायक हो गई है। पर इस पंचर को ठीक करने में आधा- पौना घंटा लगेगा। तब तक आप लोग यहाँ आराम से बैठ जाइए!"
कह कर उसने अपनी दोनों बेंत की कुर्सी आगे सरका दी, जो शायद उसके खपरैल घर की सबसे बेश्किमती आसबाब थी!
आशीष ने इस समय पेट में कुछ भारी पन महसूस किया। अतः वह हल्का होने के लिए उस खपरैल के पीछे की झाड़ियों की ओर बढ़ गया!
क्रमशः
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
Interesting Story.
Good story
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