बंगाल में होली वर्ष का अंतिम उत्सव है। यह फागुन महीने की पूर्णिमा तिथि को मनाई जाती है, जिसे स्थानीय भाषा में "दोलोत्सव" या संक्षेप में "दोल" भी कहा जाता है। दोल वर्ष का अंतिम उत्सव इसलिए है क्योंकि फागुन के बाद चैत्र का महीना आता है , जो अधिकतर "मलमास" ही होता है, अर्थात् इस महीने में शुभ कर्म जैसे-- विवाह, उपनयन, अन्नप्राशन आदि वर्जित होते हैं।
दोलजात्रा जिसे दोलयात्रा या दोलपूर्णिमा भी कहते हैं का प्रचलन सिर्फ बंगाल में ही नहीं है अपितु पूर्वी भारत के कुछ अन्य प्रदेशों जैसे- आसाम एवं ओडिशा में भी इसी नाम से मनाई जाती है।
दोलोत्सव राधा -कृष्ण के प्रेम को समर्पित है। यह त्यौहार उसी दिन मनाई जाती है जिस दिन कि समूचे उत्तर भारत में होली के रूप में मनाई जाती हैं। जैसा कि ऊपर कहा गया है बंगाली पंचांग का अंतिम उत्सव दोल, होली के जैसा रंगों का त्यौहार होते हुए भी इसके पीछे की कथा थोड़ी भिन्न है।
प्रचलित मान्यतानुसार- होली के दिन ही श्रीकृष्ण ने अपनी राधारानी से पहली बार उनके प्रति प्रेम का इज़हार किया था। अतः रंगों के द्वारा मनाई जानेवाली यह त्यौहार दरअसल राधा कृष्ण के प्रेम को मनाने का ही उत्सव है।
कहीं कहीं इस दिन राधा -कृष्ण को झूले में बैठाकर झूलाया भी जाता है। परंतु उसके लिए आसाढ़ के महीने में एक और त्यौहार भी समर्पित है जिसे " झूलन" के नाम से जाना जाता है।
इस दोलयात्रा का महत्व इस बात के कारण भी है कि इस दिन 16वी शती के प्रसिद्ध वैष्णव भक्त चैतन्य महाप्रभु का भी जन्मदिन है।
दोलोत्सव का प्रारंभ एकदिन पहले होलिका दहन के माध्यम से होता है, जिसे स्थानीय भाषा में " नेड़ा पोड़ा" कहते हैं। इसदिन लकड़ियों का ढेर इकट्ठा करके उसमें एक बड़ी सी आग लगा दी जाती हैं। और बच्चे बूढ़े आनंन्द से उस आग के चारों ओर घूमघूमकर गाते एवं नृत्य करते हैं।
अगले दिन नहा धोकर सबसे पहले राधा-कृष्ण को "अबिर"(गुलाल) लगाया जाता है। फिर गुरुजनों यानि कि बड़े-बूढ़ों के चरणों में गुलाल लगाकर आशीर्वाद लिया जाता है। परिवार के मृत लोगों के फोटों पर भी इसदिन गुलाल मलकर आशीर्वाद लेने का प्रचलन है। उसके पश्चाता फाग खेलने का यह त्यौहार आरंभ होता है।
इसदिन लोग एक दूसरे को गुलाल ( अबिर) लगाते हैं, रंग फेंकते है, बच्चे रंगबिरंगी पिचकारी और पानी के गुब्बारे से आते जाते लोगों पर रंग डालते हैं। घर पर औरतें पारम्परिक पकवानें बनाती है, जिसकी खुशबु से सारा वातावरण महक उठता है।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगौर द्वारा वीरभूम जिले के बोलपुर में स्थापित विश्वविद्यालय , विश्वभारती शांतिनिकेतन में दोलोत्सव मनाने का बड़ा ही अनोखा तरीका है। इसदिन को यहाँ " वसंतोत्सव" के नाम से बड़े धूमधाम और हर्षोल्लास से मनाया जाता है।
टैगोर ने वसंतोत्सव का प्रचलन अपनी शांतिनिकेतन में इस उद्येश्य से किया था कि रंगों का यह उत्सव हमारे जीवन में अपार खुशियाँ और अशेष आनंद से भर दें।
इस दिन सुबह यहाँ के सभी नवीन और पुरातन आश्रमिक पीले रंग के सुंदर वस्त्रो से सुसज्जित और टेसु( पलाश) के फूलों की माला पहने उस सुविख्यात छातिम गाछ के नीचे एकत्रित होते हैं। फिर अपने नृत्यों और गीतों से ऐसा समा बाँध देते हैं कि समग्र वातावरण ही संगीतमय हो जाता है। साथ ही सूखे रंगों से होली भी खेली जाती हैं। यह उत्सव दिनभर तक चलता है।
शांतिनिकेतन का वसंतोत्सव का समा कुछ इस तरह का होता है कि यहाँ उपस्थित लोगों का दिल प्रेममय हो उठता है। यह उत्सव अब बंगाल के संस्कृति का एक अभिन्न भाग बन गया है। देश- विदेश से लोग शांतिनिकेतन के इस उत्सव में विशेष रूप से शामिल होने के लिए दूर दूर से आते हैं।
रवीन्द्रनाथ के शब्दों में--- "रांगिए दिए जाओ" अर्थात् मुझे अपने रंगों में रंगा दो -- इस उत्सव को सार्थकता प्रदान करती है।
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