मनोरमा, खिड़की पर बैठी बाहर की प्रकृति को निहारती हुई सोच रही थी।
पिछले वर्ष जब राहुल के पापा जीवित थे उसके भी जीवन में कितने तरह के रंगों का समावेश था। परंतु न्यूमोनिया रोग से ग्रसित उसके पति, उनलोगों को बिना चिकित्सा कराने के उचित अवसर दिए ही जिस दिन अचानक परलोक सिधार गए थे उसी दिन से उसकी और राहुल की जिन्दगियाँ फीकी पड़ गई थी।
अब तो मानों केवल एक ही रंग शेष रह गया था जीवन में-- अपार दुःख और अपयश का काला रंग।
राहुल के पापा के जाने के बाद पैसों की भयानक तंगी हो गई थी। वे एक ही कमानेवाले थे। जिस प्राइवेट फार्म में वे जाँब करते थे, उनकी अकालमृत्यु होने पर वहाँ से चंद सूखी सहानुभूतियों और आश्वासन के अलावा कुछ न प्राप्त हो सका था। प्राविडेंट फंड पर इसी तरह की विपत्ति हेतु तिल- तिल संचित राशि भी आज तक उन लोगों से नहीं दिया।
कितने लोगों से उस समय उसने एक नौकरी हेतु सिफारिश की थी ! जब उम्मीद के सारे दरवाजे बंद हो गए थे तो एकदिन उसे समाचार पत्र में यह विज्ञापन दिखा था---" मशहूर उद्योगपति भल्ला साहब को अपनी छः वर्षीय बेटी के लिए एक गवर्नेस की तलाश है।"
किस्मत में थी इसलिए शायद यह नौकरी उसी को मिली थी। वर्ना छः सौ से अधिक उम्मीदवार इस पद हेतु वहाँ उपस्थित हुए थे।
अब तो ऐसा लगता है कि शायद उसने यह काम लेकर बहुत बड़ी गलती की है। हाँ, इससे उसके घर की आर्थिक स्थिति अवश्य संभल गयी। राहुल को भी पुनः स्कूल भेज पाई वह।
फिर भल्ला साहब भी बड़े नेकदिल इंसान निकले। उसके प्रति कितनी दया भाव रखते हैं ! और उनकी बेटी टिशा? उसने तो उसे अपनी माँ के स्थान पर ही बिठा दिया है। थोड़े से समय में टिशा उनसे ऐसी घुल-मिल गई थी कि अगर वे किसी करण से उनके घर काम पर नहीं जा पाती तो टिशा स्वयं गाड़ी लेकर उनके घर चली आया करती ।
परंतु मोहल्लेवाले--- उसका क्या करें? जिन लोगों ने राहुल के पिता की मृत्यु पर उनके घर पर झाँका तक नहीं था, वही अब घर-घर जाकर यह अफवाह फैला रहे हैं कि मनोरमा भल्ला साहब की रखैल बन गई है!! और आश्चर्य की बात तो यह है कि जो उसे वर्षों से जानते थे वे भी इस अफवाह को सच मान बैठें हैं। औरों को क्या दोष दें--उसके स्वयं के माता- पिता भी इसबात पर नाराज होकर अपनी मजबूर और असहाय बेटी से रिश्ता तोड़ चुके हैं।
जिस भाई को उसने अपनी गोद में खिलाया था। उसने भी कल दीदी को अपने घर के चौखट पर खड़ी देखकर घृणा से अपना मुँह फेर लिया था।
गनीमत है कि राहुल अभी बच्चा है, इसलिए कुछ समझता नहीं है।
लोगों की मति परिवर्तन में बिलकुल भी समय नही लगता। मरे हुए को और मारना कदाचित हमारे समाज का सर्वाधिक प्रिय मनोरंजन है!
मनोरमा इसी तरह अपनी भावनाओं में बही जा रही थी कि तभी अपने गाल पल दो कोमल हाथों के स्पर्श से वह अपने आपसे बाहर आई।
"हैपी होली, आंटी," के मधुर स्वर ने उसके कानों में मिश्री घोल दी।
भीगे पलकों को उठाकर टिशा को देखकर वह मुस्कराई स्नेहाशीश देकर माथा चूमा। तभी उसकी दृष्टि दूर खड़े भल्ला साहब पर पड़ी।
भल्ला साहब अपने साथ में ढेर सारे रंग और पिचकारियाँ लेकर आए थे। मोहल्ले के सभी बच्चों को बुलवाकर उन्होंने टिशा और राहुल के संग लेकर होली खेलना शुरू कर दिया। सबको होलि की गुजिया भी खिलाई थी।
इतने बड़े उद्योगपति को मनोरमा के घर देखकर मुहल्ले के लोग भी धीरे-धीरे अपने घर से बाहर निकलने लगे। और सभी अपने गिले- शिकवे भूलकर एक दूसरे पर रंग लगाने लगे।
कुछ औरतें मनोरमा को भी पकड़कर ले आई और उस पर भी सबने जबरदस्ती रंग डाल दिया।
सुबह से निराश और अकेलेपन के बोझ से दबे मनोरमा का मन भी धीरे-धीरे रंगों से भर उठ रहा था।
रंगबिरंगा गुलाल अब उसके जीवन में आद्यंत व्याप्त कालेपन के स्थान पर अन्य रंगों का संचार कर रहा था।
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