करोना का यह जो समय है
जिसे आप लाकडाउन, क्वेरान्टाइन
और जाने क्या-क्या कहते हैं,
जानते हैं क्या?
कि यह भी एक प्रकार से
ईश् का ही आशीष है?
यही वह समय है,
जरा ठहर जाने का,
अपनी रोज़मर्रा की जिन्दगी में,
भागते हुए ,जरा रुक जाने का।
उस अंतहीन मूषकीय दौड़ को बीच मे रोककर?
यही समय है,
सोच का, विचार का और आत्ममंथन का।
जो कर रहे थे अब तक
क्या वह सही था?
दूसरो के साथ हर स्तर पर प्रतिस्पर्धा,
उसके पास एक गाड़ी है,
तो मेरे पास दो क्यों नहीं?
यहाँ तक कि शिशुओं से भी
उनका बचपन छिन लिया था हमने,
जिस पर उनका जन्म जन्मांतर का हक था।
उन्हें भी बना डाला अपना स्टेटस के प्रतीक!
फलाना बच्चा अमुक स्कूल में जाता है,
तो मेरा उससे बेहतर में क्यों नहीं?
यही नहीं,हम भूल गए थे रुक जाना,
एक के बाद एक मंजिल यद्यपि पार करते चले गए।
फिर भी संतुष्ट होने के बजाय
कामयाबी, पैसा, रुतबा के ही गुलामी करते रहे।इसलिए,
ऊपरवाले ने एक मौका हम इंसानों को दिया है,
चलो बदलते हैं!
अपनी इस सड़ी-गली
सोच से बाहर निकलते हैं।
इस बार कामयाबी का नहीं,
इंसानियत का दामन थामते हैं।
अहंकार को त्याग कर
स्वयं अपने जूठे वर्तन साफ करते हैं।
और रहम दिखाकर
जरूरत मंदों की सेवा करते हैं।
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