प्रिय विद्यालय,
मेरे सर्वप्रिय विद्यालय। मेरी ज्ञानभूमि, मेरी कर्मभूमि, विद्यालय। सबकुछ सामान्य होने पर मैं सबसे पहले तुम से मिलना चाहती हूँ।
मैं सरला, पहले दिन माँ का हाथ पकड़कर जब तुम्हारे आंगन में आकर खड़ी हुई थी। उस दिन डरी -डरी नज़रों से तुम्हें निहार रही थी। सोच रही थी, कि मेरी जैसी साधारण सी बच्ची इतने बड़े विद्यालय में कैसे पढ़ पाएगी? पर मेरी माँ यहाँ सबको जानती थी, तो मेरा दाखिला तुरंत हो गया था।
फिर अपने ही हमउम्र दूसरे बच्चों के साथ तेजी से मैं घुल-मिल गई थी। बच्चों में भेदभाव की भावना नहीं होती हैं न?
अब विद्यालय ही मेरा दूसरा घर था। बल्कि, वह तो पहले घर से भी अच्छा था। यहाँ मैं खेलती, कूदती, हँसती, खिलखिलाती थी। साथ में, पढ़ाई में भी मन लग गया था। शिक्षिकाओं की प्रशंसा पाकर मन फूला न समाता था।
परंतु मेरी किस्मत में इतना सुख कहाँ लिखा था? छठी कक्षा में पढ़ते समय मेरी प्यारी माँ का देहांत हो गया!
बापू ने दूसरी शादी कर ली थी। नई माँ ने मेरी पढ़ाई छुड़ाकर अपने बच्चों को संभालने की जिम्मेदारी मुझे सौंप दी। फिर तो मैं उन दोनों सौतैले भाई -बहन की मैं आया बनकर रह गई।
एक बहुत ही कष्टपूर्ण जीवन झेला है मैंने इसके बाद। शादी हुई एक शराबी के साथ। उसकी मार खाकर अपना बच्चा खोया। आखिर, वह शराबी भी एक दिन अक्सीडेन्ट से मर गया, तब जाकर थोड़ी सी मेरी जीवन की दिशा बदली।
मेरी माँ इस विद्यालय में ग्रुप - डी स्टाॅफ थी। इसलिए मुझे भी आसानी से विद्यालय में छोटे बच्चों की आया की नौकरी मिल गई। बच्चों के बीच रहकर मुझे नया जीवन मिला। उन्हीं के साथ दुबारा मैं हँसने खेलने लगी थी।
फिर, लाॅकडाउन की घोषणा हो गई और एक बार फिर मेरी जिन्दगी से वे हँसते मुस्कुराते पल छिन गए।
इसलिए, जब स्थिति सामान्य हो तो, मेरा विद्यालय, मैं सबसे पहले तुम्हीं से मिलना चाहती हूँ।
भवदीया,
सरला ।
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