"जड़ें"
लघुकथा
हमें नए घर में शिफ्ट हुए कुछ ही समय हुआ था ,वहां घर के आगे थोड़ी जगह थी ,जहाँ मैंने सोचा कुछ पौधे व मौसमी सब्जियां लगाई जाएं ।
बेटे को साथ लेकर पास की नर्सरी से पौधे आर्डर कर आई और आते वक़्त रास्ते में दुकान से रोज़मर्रा का सामान लेने लगी तो छुट्टे एक रूपये की दिक्कत आई ,मैंने कहा ," भाई साहब कल परसों मैं दे जाऊंगी ,अभी तो आपको इस एक रुपये के लिए दो सौ का छुट्टा करना पड़ेगा ।
दुकान वाला भी मान गया ।
समान लेकर हम दोनों घर आ गए।
रात तक पौधे भी पहुंचा गया नर्सरी वाला ।
दूसरे दिन मैं किसी काम में व्यस्तता की वजह से पौधे लगा नहीं पाई व न ही दुकान जा पाई ।
अचानक रात को सोते हुए याद आया कि आज तो पौधे लगाए भी नहीं ,सुबह जल्दी उठकर देखा तो मिट्टी सूखने लगी थी ।
मैंने नाश्ता-पानी समेटा और जल्दी से क्यारी खोदने लगी ।
पति देव भी यह सब देख रहे थे ,उन्हें पता था कि जब तक मैं काम को पूरा नहीं कर लेती ,चैन से नहीं बैठने वाली ।
अचानक मैंने बेटे को आवाज़ लगाई ," शीनू तुम उन दुकान वाले अंकल को एक रुपया देकर आ जाओ ,कल भी हम लोग भूल गए थे ।"
मेरे पति की हंसी पूरे वातावरण में गूंज गई ," तुम औरतें भी न ! कैसे छोटी छोटी बातों के पीछे पड़ी रहती हो , उसको याद भी है क्या कि तुम एक रुपया बाकी छोड़ कर गई हो ।" कभी सब्जी वाले के पीछे ,कभी दुकान वाले के ।हुह$!
मैंने कहा,"उसे तो याद है या नहीं मुझे नहीं पता लेकिन मुझे और शीनू को याद है कि हमने दुकान वाले को एक रुपया कम दिया था ।
यदि आज से ही शीनू की उधार भूलने की आदत लग गई तो बाद में उसको दी गई हमारी कोई भी नसीहत काम नही आएगी ।
तब तक मेरी क्यारी तैयार हो चुकी थी , मैंने प्लास्टिक हटाते हुए जड़ों पर पहले पानी डाला ,जो थोड़ी सी सूख गई थी ,फिर गड्ढे में खाद व पानी डालते हुए उसे रोप दिया ।
कुसुम पारीक
मौलिक,स्वरचित
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