"मायने'
पिता सोच रहा था, "आज होली में बड़ा मजा आएगा,दोस्तों के साथ भांग घोटेंगे और फिर फाग खेलेंगे। इस अवसर पर गाना, 'रंग बरसे भीगी चुनरिया' हर साल एक अलग ही उन्माद जगा देता है।
लेकिन मजा तो तब आये तब पड़ोसन के चुपके से रंग लगाने का मौका मिल जाए।
आय हाय--" अलमारी से पुराना कुर्ता पायजामा निकालते हुए उनके शरीर में एक अलग सी झुरझुर्री दौड़ गई।
माँ रसोई में पकौड़े के लिए घोल तैयार कर रही थी, "जब सब लोग होली खेल कर आएंगे तब आते ही खाना मांगेंगे।
सहेलियां आएंगी तब उनके साथ मुझे भी थोड़ी देर होली की मस्ती करने का समय मिल जाएगा।"
बेटा भी अलग धुन में अपनी पिचकारी और बैलून भरने में लगा हुआ था।
"आज तो उसे रंग लगा कर रहूंगा,चाहे कुछ भी हो जाए। कितने दिनों तक बचेगी मेरे प्यार के रंग से। आज यह मौका मैं नहीं छोड़ने वाला।"
उधर पास वाले कमरे में," हाँ आ रही हूँ न, तुम सब लोग भी आ रही हो न लेकिन ध्यान रखना थोड़ा, कहीं अबीर मेरे रंग न लगा दे।"
"---------------"उधर से फोन की आवाज।
"अरे यार तुम समझती नहीं, मैं भी उससे प्यार करती हूँ लेकिन यूं खुलमखुल्ला अच्छा थोड़े ही लगेगा। कोई जान पहचान वाला देख लेगा तो लेने के देने पड़ जाएंगे।"
अचानक बरामदे में चारों की आँखें दो चार होती हैं।
और पिता की आँखे बेटी पर टिकती हैं।
"तुम कहाँ चली?"
"पापा, वह मैं सहेलियों के साथ होली खेलने जा रही हूँ।"
"कैसी बातें करती है? तू मौहल्ले में होली खेलने जाएगी?"
बेटा बोल पड़ा।
"क्या हो गया तो आप दोनों भी खेलने जा रहे हैं न फिर हम माँ बेटी क्यों नहीं जा सकती बाहर खेलने?"माँ की मिमियाती सी आवाज आई।
" तुम्हारी वजह से यह लड़कीं भी हाथ से निकली जा रही है। एक बात कान खोल कर सुन लो, तुम दोनों कहीं नहीं जाओगी। जब तक हम आएंगे तब तक खाना तैयार कर लो।
हाँ--एक दो दोस्त भी आएंगे साथ में।" कहते हुए पिता निकला व उनके पीछे बेटा भी चल पड़ा।
और वह चार गंदगी भरी हुई ऑंखें घर से बाहर चल पड़ीं, देखते ही देखते थोड़ी देर में उन वाहियात नज़रों का सैलाब सड़क पर था और जाने कितनी इज़्ज़त की पोटलियाँ घर में सिसक रही थीं।
कुसुम पारीक
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
bahut badiya
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