लघुकथा
"जब मैं जागा"
तुम्हारी प्लेट्लेट्स गिर रहीं थीं और उल्टीयां भी हो चुकी थीं.. आई सी यू में थी । थैंक गॉड , बच्चे वक़्त रहते अस्पताल ले आए वरना ... ! ड्यूटी डॉक्टर मेरी तरफ हिक़ारत से देख रहे थे । मैं किसी अजनबी सा शून्य में खो सा गया ..
इसने कभी अपनी बीमारी दर्द तकलीफ़ को मेरे सामने नही दिखाया और न ही काम करने में लापरवाही की ,और मैं यही समझता रहा कि सब ...ठीक है ।
शादी से ही तुम मेरे साथ सपनों को मुट्ठी में कैद करना चाहती थी , दुनिया को भी ! मुझे ये बातें बचकानी बेबुनियाद लगती , रियल लाइफ से दूर की बातें । कभी तेरे साथ उड़ने की कोशिश नहीं की मैंने !
तुमने घर बाहर की ज़िम्मेदारी से मुझे मुक्त कर दिया, आराम तलब होता चला गया , चाय टॉवेल कपड़े खाना सब हाथ देती तुम ।
जब मैं ऑफिस से घर आता चाय पिला , मेरे बालों में हाथ फेर मेरा मूड फ्रेश करती और.. मैं अपने दोस्तों से मिलने निकल जाता ।
मुझे बुखार था ,मेरी तीमारदारी में लग गई थी ख़ुश भी थीं कि मैं अब तुम्हारे साथ पास रहूँगा कुछ देर ही सही । पर बुखार उतरते ही मैं काम पर निकल गया , तुम्हारा उतरा चेहरा आज भी मेरे सामने है ।
मुझे सब ढकोसला लगता , टेंशन लेना , परेशान होना बच्चों को एक्स्ट्रा एक्टिविटी में भाग दिलाना भाग दौड़ करना ।
"तुम अपने सपनों व भावनाओं को मार कर मेरे साथ हर क्षण खुशी से बिताना चाहती थी, निर्विकार सा मैं काम में ही डूबा रहता या कभी समय मिला तो मित्र ,नाते रिश्तेदार ही मेरे लिए विशेष रहे ।"
तुम मुझे मेरी ज़िम्मेदारी समझाती कभी, झुंझला कर लड़ भी पड़ती थी , पर दो ही मिनट बाद मेरी टाई ठीक करने लगती ।
और मैं ? तुम्हें "धकियाता हुआ" ऑफिस के लिए निकल जाता , और तुम डबडबाई आंखों से मेरी सलामती की प्रार्थना ही करती ।"
तेल मालिश करते तुम मेरे बाल सहलाती तो मैं स्वयं को सबसे खुशनसीब इंसान समझता था । लेकिन तुम्हारी चाट की फ़रमाइश पर तुम्हें ' चटोरी' बोल दिया था और वो तुम्हारी आखिरी फ़रमाइश साबित हुई , चुप हो गयी थीं तुम ।
तुम्हारे आंसू ,जैसे मेरे ईगो को ही बूस्ट करते और मैं सोचता "औरतें आंसू लाकर पुरुषों को डराने की कोशिश करती हैं " पर मैं फसूंगा नहीं ।
तुम्हारे निष्काम कर्तव्य पालन का नतीजा यह हुआ कि बच्चे तुमसे जुड़ते गए और मुझसे दूर होते गए । जब दोनों रिजल्ट या मैडल लाते तो सबसे पहले तुम्हें ही लाकर दिखाते।
तुम्हारी गुहार मेरी मां सुनती भी थी ,"लेकिन किसी पुरुष को कैसे कोई औरत समझा सकती है ? "बस वहां तुम मन हल्का कर सकती थी।
मेरी निष्ठुरता स्वरूप तुमने अपनी किट्टी पार्टियां भी शुरू कर दीं लेकिन मुझे यह सब भी बर्दाश्त नहीं होता था क्योंकि बेवज़ह ड्रेस , समय और पैसे की बर्बादी लगती ,मेरे लिए ये सब चोंचले होते ।
परिणाम वही हुआ .. प्रौढ़वस्था में मैं अकेला तथा तिरस्कृत महसूस करने लगा और बच्चों के साथ तुम और मज़बूत हो चुकी थी , फिर भी तुमने मेरी परवाह थी तुम्हे ।
अब बस, यह अंतर आ चुका था कि "जिस सानिध्य के लिए तुम तरसती थी ,उसके लिए अब मैं तरसने लगा ",क्योंकि जब भी मैं चाहता तुम मेरे आस पास रहो, तुम किशोर हो रहे बच्चों से घिरी उनकी कोई समस्या सुलझा रहती ।अब बच्चे भी अपनी अपनी जॉब में खुश हैं ।
इतने सालों की चुप्पी या यूं कहें तिरस्कार से तुम खुद को सिमटा चुकी थी , तुम्हें ३ दिन से चढ़ रहे बुखार को भी मैं देख नहीं पाया व जब रविवार को बेटा घर आया तो उसने तुम्हें एडमिट करवाया ।
अब तो बच्चों को भी मैं "कबाड़ "की वस्तु लगने लगा हूँ लेकिन मैं जानता हूँ कि तुम मुझे अकेला छोड़कर नहीं जाओगी । "ज़िन्दगी भर मैं खुद को तृप्त समझता रहा--- और तुम तृषित रही। "
"आज मैं तृषित हूँ -----तुम तृप्त दिखाई दे रही हो।"
कुसुम पारीक
स्वरचित मौलिक
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