"वामा-ग्रन्थि"
मैं उस अद्भुत नारी को देखकर सोच में पड़ गया था .. ऐसा साहस विरलों में ही मिलता है ।
जब उसने कहा, "मुझे इस समर्पण व त्याग के जीवन से निजात पानी है शायद भगवान ने ही ऐसी कोई ग्रन्थि बनाई होगी ..…" मैं चाहती हूँ कि आप इसे खत्म करने की दवाई दें।"
कितनी संजीदगी से उसने कहा दिया...." मैं जिस चक्रव्यूह में हूँ उसकी ज़िम्मेदार मैं हूँ न कि मेरे पति"
मैने कई बार जोर दिया कि गलती तो आपके पति की ज्यादा है जो आपकी भावनाओं व त्याग को न समझकर आपको मानसिक प्रताड़ित करते हैं लेकिन उसका कहना था..."त्याग ,दया सहनशीलता व समर्पण के गुण मेरे हैं जो मैंने उन्हें इस जीवन में दिए और इतने गूढ़ स्तर तक दिए कि उनके जीवन में यह मात्र व्यर्थ की हवाई बातें बन कर रह गईं।
जब पुरुषोचित अहम के वशीभूत.... यह मुझे अपने इशारों पर नचाना चाहते थे तो वह कठपुतली जैसी मौन स्वीकृति मेरी ही थी जिन्हें मैं पत्नी के कर्तव्यों व प्रेम का नाम देकर निभाती चली गई… और उन्होंने इसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझ लिया।
"जीवन हो या कैनवास .. आप जितने रंग भरते हो वे खुद की खुशी के लिए भरते हो लेकिन इतराता तो केवल चित्र ही है न !
वह तुम्हें वापसी में कुछ नहीं देता ।"
बड़े-बड़े मनोरोगियों का इलाज करते हुए आज महसूस हुआ कि वह मुझे एक नया पाठ पढ़ा गई ।
"शायद कोई भारतीय स्त्री ही थी ........"
कुसुम पारीक
मौलिक, स्वरचित
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