" व्यथा"
मैं हिंदी हूँ और संस्कृत मेरी मां है जो एक जमाने में बहुत गौरवशाली ,सुंदर,सुसंस्कृत और विदुषी रही हैं।
मैंने भी मेरी माँ के पदचिन्हों पर चलते हुए स्वयं को शैशवावस्था से ही मिलनसार और बौद्धिक क्षमताओं से ओतप्रोत करते हुए स्वयं का विकास किया।
मध्यकालीन युग में मैं पूरे यौवन पर थी ।सभी साहित्यकार और कवियों की रचनाओं में मेरा खूबसूरती से वर्णन किया जाता था ।
उसी समय मेरे साथ ही एक और भाषा उर्दू भी बड़ी होने लगी ।मैंने उससे भी हाथ मिलाया और कई कवियों ,साहित्यकारोँ की रचनाओं में हम एक दूसरे के साथ देखी जाने लगीं।
मेरी कई बेटियां( क्षेत्रीय भाषाएं) भी हुईं जो अपने-अपने घर में लोगों के मेलजोल का माध्यम बनीं परन्तु सम्पूर्ण भारत भूमि पर मेरा ही अधिकार था।
मेरी दूसरी बहनें भी थीं( दक्षिण भारतीय भाषाएं) जो धीरे धीरे मुझसे ईर्ष्या करने लगीं ।
इसका कारण मैं आज तक नहीं समझ पाई जबकि मां ने स्वयं की विरासत का हिस्सा उन्हें ज्यादा दिया था।
फिर भी मैं खुश थी मेरी बेटियों और अन्य भाषाओं के साथ।
19 वीं शताब्दी में जब अंग्रेज आए और उन्होंने जगह-जगह अपनी भाषा के विद्यालय खोलने शुरू कर दिए व स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने लगे।
1947 में जब अपना देश आजाद हुआ तब मैं बहुत खुश हुई कि अब मेरे घर में मेरा सम्मान होगा। मेरा यह सपना तब टूटा जब मेरी सौतेली बहनों को भड़का कर हमारे घर के संचालकों ने स्वयं की रोटी सेकने के लिए ,उन्हें मेरे विरुद्ध खड़ा कर दिया। यह विरोध इतना तीव्र था कि मेरे घर के कई भाग जला दिए गए और अंग्रेजों की एक नीति दुबारा काम कर गई ।अंग्रेजी को 10 वर्ष तक मेरे घर में यह कह कर पनाह दे दी गई कि अभी घर में अव्यवस्था है, ज़िम्मेदारी ज्यादा है। जब,सब कुछ सामान्य हो जाएगा तब अंग्रेजी को निकाल देंगे ।
लेकिन वह अंग्रेजी ,सौत की तरह मेरी ही छाती पर मूंग दलने लगी।
मेरे ही बच्चों को मेरे विरुद्ध किया जाने लगा ।जब वे विद्यालय जाते तब वहां मेरा नाम लेने तक की मनाही कर दी गई।
मेरा सम्मान, वैभव सब मिटने लगा।
कभी नौकरियों का प्रलोभन तो कभी आधुनिकता का प्रलोभन देकर मेरे ही खून को मुझसे अज़नबी किया जाने लगा।
अब तक यह दस साल की अवधि सत्तर साल में तब्दील हो चुकी है । मेरी सौत घर छोड़ने को भी तैयार नहीं है। मेरी खूबसूरती ,मेरा वैभव,मेरी गरिमा इस क़दर तार तार हो गए और इस उपहास से मैं इतनी द्रवित हो उठी कि अब यदा कदा ही बाहर निकलती हूँ।
अंग्रेजी का यौवन उफान पर है और मैं निराशा के भंवर में डूबी हुई ।
जैसा कि कहा गया है, धोखा ज्यादा दिन नहीं चलता और पुत्र माँ से ज्यादा दिन दूर नहीं रह सकता ।
मेरे पुत्रों को दुबारा मेरी अहमियत समझ आने लगी हैं और
वे मेरा खोया हुआ सम्मान दिलाने के लिए प्रतिबद्ध हो चुके हैं।
आज मेरे बेटे मेरी सौत को घर से नहीं निकाल पा रहे हैं क्योंकि यह जड़ जमा चुकी है ।परन्तु मेरा सम्मान करने लगे हैं ।मुझे अपने साथ यदा-कदा बाहर भी ले जाते हैं ।
१४ सितंबर को तो मेरा जन्म दिन मनाते हैं ।
परन्तु एक टीस मेरे मन मे है , मैं मेरे पुराने वैभव को वापस पाना चाहती हूँ।
मेरे बच्चों से यही गुहार है कि यदि तुम अपनी माँ का वैभव दिलाने की ठान लो तो मुझे कोई इससे वंचित नहीं कर पायेगा ।
इसी आशा में तुम्हारी माँ
"हिंदी"
कुसुम पारीक
मौलिक,स्वरचित ,
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
बेहतरीन💐💐
आपकी कलम को नमन मैम
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