और बाँध टूट गया"
"मिजाज़ हो जैसा वैसा मंज़र होता है
मौसम तो इंसान के अंदर होता है ..."
बारिश की हर बूँद पेड़ पत्तों पर मोतियों सी सजने को तैयार थी ,उनकी सुंदरता देख मेघा का मन मयूर भी खुश होना चाहता था,मन की भावनाएं हिलोरे ले रही थी लेकिन चारों तरफ यादों की जो बगियाँ थी उसके उजड़ने वाली कंटीली बाड़ थी उसके कांटे उसे चुभे जा रहे थे ।
वह कितनी भी कोशिश करे लेकिन जब-जब सावन आता था उसका मन उसके पास न होकर उस क्षण को पकड़ कर बैठ जाता था जिसमें वह सावन की बाँहों में होती थी। दोनों को ही बारिश से बहुत लगाव था । ऊपर से गिरती फुहारे उनके तन को भिगोती हुई मन को भी लबालब कर जाती थी। मौसम की पहली बारिश उन्होंने कभी भी सूनी नहीं जाने दी थी।
जब भी सावन उन घिर आये बादलों को देखते , सीधे मेघा के पास आते और कहते ,"बारिश आने से पहले शाम के खाने की तैयारी कर लो,फिर फटाफट गर्मागर्म पकौड़े खाएंगे।
वह भी कहाँ दूर रहती थी उन बादलों से जो कड़कड़ाती बिजली के साथ पूरी तन्मयता से बरसते थे और जब घनघोर बारिश में बादलों की गड़गड़ाहट होती तब वह घबरा कर सावन की बाँहों में समा जाती थी।लरज़ते होंठ और आँखों मे बसे प्यार में दोनों कब तक खोए रहते उन्हें खुद भी होश नहीं रहता था।
एक बार इसी बारिश में जब अपने भीगे बदन और चेहरे पर घिर आये डर में वह ऐसी छुई मुई बन गई थी,जिसे सावन अपनी बाँहों में समेट कर गोदी में भरकर चिपका लिया था लेकिन उस भीगने से जो ठंड लगी उसमें उसकी तबीयत पंद्रह दिन तक ठीक नहीं हुई थी। कितनी चिंता हो गई थी सावन को! रात सिन उसके सिरहाने ही खड़े रहते । उनकी तब जान में जान आई कब वह पूरी तरह से ठीक न हो गई।
उन्हें हमेशा यही लगता ,जैसे यह मौसम कभी बीते नहीं और वे दोनों ऐसे ही एक दूसरे में खोये रहें और इस दुनिया से दूर अपने अलग ही लोक में विचरण करते रहें ।
लेकिन इंसान का सोचा कब होता है? जीवन में सभी ऋतुएं अपना-अपना चक्र पूरा करती हैं । और मेघा के जीवन मे इस बार गया सावन फिर कभी लौट कर नहीं आया।
बेटे ऋत्विक के जन्म के दो साल बाद एक दिन ऐसा भयानक एक्सीडेंट हुआ कि सावन उसे हमेशा के लिये छोड़कर चले गये की मेघा जड़ होकर रह गई थी। उस दिन के बाद,मेघा फिर कभी पहले की तरह नहीं बरसी।
हाँ, कुछ बरसता जरूर था परन्तु केवल उसकी आँखों जो मन में उमड़ती यादों को इतना बहाती कि दरिया बन जाये। यह यादें ही थीं जो मेघा के पास थीं और उसे कभी भी उसे सावन से दूर नहीं होने देती थी।
धीरे धीरे ऋत्विक भी बड़ा होने लगा और माँ से बारिश में नहाने की ज़िद करने लगता। मेघा का ध्यान उसकी इच्छा पर कम अपने दुःख के दरिया में गोते लगाने में रहता था। ऋत्विक परेशान होकर गुमसुम सा कमरे में बैठ जाता था। बेटे की उदासी उसे भी दिखती थी लेकिन वह अपनी जिंदगी में पड़े अकाल में बारिश की फुहारें बरसाना भी नहीं चाहती थी।
जीवन को रेगिस्तान बना चुकी थी। धीरे धीरे बड़े होते हुये ऋत्विक को भी माँ के दुःख का अहसास होने लगा था और उसने ज़िद करनी छोड़ दी थी।
मौसम बीतता गया और मेघा का जीवन भी रीतता गया उधर ऋत्विक की अच्छे सरकारी पद पोस्टिंग हो गई थी।
अब ऋत्विक की शादी की चिन्ता मेघा को सताने लगी थी लेकिन ऋत्विक ने उसकी समस्या अपने साथ पढ़ने वाली वर्षा से मिलवाकर हल कर दी। प्यारी से वर्षा को देखते ही मेघा आनंद से भर गई और जल्दी ही उनकी शादी कर दी गई।
शादी के बाद ऋत्विक ने अपना ट्रांसफर गृहनगर में करवा लिया था। सावन का महीना आने वाला था और वर्षा को अपने पीहर जाना था लेकिन ऋत्विक ने यह कहते हुये उसे रोक लिया था कि हम लोग मम्मी के साथ ही रहेंगे। पुरानी परम्पराओ की जगह मम्मी को तरजीह देना ऋत्विक को महत्वपूर्ण लगा।
मौसम फिर अपने यौवन पर था लेकिन मेघा ने अपने दिल पर जमी परते इतने वर्षों बाद भी नहीं हटाई थी। नई बहू वर्षा भी थोड़ी सकुचाती सी पहली बारिश को देखती रही ,उधर ऋत्विक भी मेघा की खुशी के लिये अपने काम मे लगा रहा। वर्षा का बहुत मन होता उस बारिश में भीगने का लेकिन सावन या तो अपने फोन में डूबा रहता या कोई क़िताब पढ़ता रहता।
अचानक मेघा की नज़र वर्षा की ओर गई जो अपने कमरे की खिड़की से पानी की रिमझिम को देख रही थी। उसके आँखों में वह अधूरापन था जिसने मेघा को अंदर तक झकझोर दिया था।
लेकिन आज की बारिश बहुत देर तक बन्द नही हुई और वर्षा का मचलना जारी था।
ऋत्विक ने एक दो बार मेघा की ओर देखा लेकिन उसके भावहीन चेहरे को देख वह शांत रह गया ।
उधर मेघा भी मायूस होकर खिड़की से ही बारिश देखने लगी।
अचानक मेघा को महसूस हुआ कि कहीं कुछ भीग सा रहा है जो उसके दिल से बाहर आना चाहता है। उसे लगा जैसे सावन उसे बारिश में भिगो रहे है और वह उसकी बाँहों में लिपटी भीगी जा रही है।
अचानक कड़की बिजली में वह चौंक कर अपनी तंद्रा से बाहर आई,ऋत्विक अभी भी अपने लैपटॉप पर काम कर रहा था और वर्षा थक हार कर अंदर चली गई थी। थोड़ी देर में वह ऋत्विक के सामने खड़ी थी उसने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा,"बेटा, वर्ष का पहला सावन है उसे बारिश में लेकर जाओ।"
माँ के मुँह से यह अप्रत्यशित सुन वह मुँह बाए खड़ा रहा।
ऐसे मुझे क्या देख रहा है ? जा बहू को लेकर जल्दी छत पर चला जा ,मैं पकौड़े बनाने रसोई में जा रही हूँ।"
थोड़ी देर में बेटे बहू की खिलखिलाती हँसी उसके चेहरे पर वह भाव ले आई जब वह भी सावन की बाँहों में थी और बरबस होंठो पर मुस्कुराहट आ गई क्योंकि आज वर्षों बाद सावन व मेघा ,ऋत्विक व वर्षा के रूप में बारिश में भीग रहे थे।
कुसुम पारीक
मौलिक,स्वरचित
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
सुंदर कथा👌👌
जी आभार आपका
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