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पिता द्वारा असाधारण परिस्थितियों में ,पुत्री पर किये गये विश्वास की कहानी

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Kusum Pareek
Kusum Pareek 22 Jun, 2020 | 1 min read

आज इस खेल प्राधिकरण में ऊंचे पद पर बैठ कर जो गर्व महसूस हो रहा है उसके पीछे न जाने कितनी मेहनत व आशीर्वाद के लिए उठे हाथों ने काम किया है । 

उन सुनहरे पलों को संजोने के लिए ,प्रज्ञा रुपहली यादों में खो गई जो हमेशा उसके लिए प्रेरणा रही हैं। 


उन्हें याद करते ही अनायास ही होठों पर मुस्कान थिरकने लगती है।

बास्केटबॉल कासीनियर नेशनल लेवल का फाइनल मैच केरल जैसी सशक्त टीम के सामने खेला जा रहा था ।

घड़ी में टाइम ओवर होने में केवल ५ सेकंड बाकी थे ।राजस्थान टीम की सेंटर खिलाड़ी ने अपोनेंट को छकाते हुए अपने बाएं हाथ से ,बॉल प्रज्ञा को पास कर दी और प्रज्ञा ने " त्वरित गति "से उस बॉल को बास्केट में डालकर विजयी बढ़त बना ली थी व उसी समय रेफ़री ने खेल समाप्ति की सीटी बजा दी ।



पूरी टीम के लिए आज जश्न मनाने का दिन था और वे सब मना भी रहे थे, लेकिन प्रज्ञा के हाथ अनजाने ही अपने "पापा "को याद कर के कृतज्ञता से जुड़ रहे थे । 


निम्न मध्यम वर्गीय परिवार की लड़की ,जो सतरंगी सपने देखती हुई असमानकी ऊंचाई को छू लेना चाहती थी, लेकिन स्नातक के बाद, उसके पापा उसको आगे की पढ़ाई को जारी रखवा पाने में असमर्थ हो रहे थे क्योंकि छोटे भाई को भी बाहर पढ़ने के लिए भेजना था ।

उसी समय सुझाव आया ,एक मामा की तरफ से ,कि मेरे यहाँ रहकर पढ़ लेगी ।

प्रज्ञा भी अपनी मंजिल के लिए चल पड़ी क्योंकि वहां वह अपना प्रिय खेल भी खेल पाएगी ।

 लेकिन थोड़े दिन में ही उसने महसूस किया कि मामा मामी दोनों ही उससे नाराज़ रहने लगे गए थे ।

जब भी वह स्टेडियम से वापिस आती ,एक तिरस्कार सा उनकी नज़रों में देखती ,लेकिन उसकी धुन उसे इन बातों की तरफ ध्यान न देने की चेतावनी देती रहती ।


उन्होंने स्पष्ट कुछ नहीं कहा था ,परन्तु एक बार जब वह घर आई तो मामा ने अप्रत्यक्ष रूप से प्रज्ञा को जता दिया था कि अब आगे की व्यवस्था अपने पिता से पूछकर कर लेना कि "क्या करना है आगे?"


शाम का धुंधलका छा रहा था ,जब प्रज्ञा का ऑटो घर के आगे रुका तथा 

वह भारी कदमों से चलते हुए अंदर गई ।


पापा ने जब उदास देखा तो सिर पर हाथ फेरते हुए उसे उदासी का कारण पूछा ,सकुचाते हुए उसने पापा को समस्या बता दी ।


साथ में यह भी बता दिया कि दो महीने बाद उसके नेशनल्स हैं, जिसमें वह भाग लेना चाहती है क्योंकि यह सपना उसने बहुत सालों से देखा है ।


पापा कुछ नहीं बोले ।

दो दिन बाद जब मैं वापिस आने लगी तो उन्होंने उसे एक लिफ़ाफ़ा पकड़ा दिया और कहा कि तेरे मामाजी को दे देना ।


वह धड़कते दिल से डरते डरते मामाजी के घर आ गई , उस समय मामाजी ऑफिस गए हुए थे ,मुलाकात हो नहीं पाई।



वह अपने कमरे में जाकर सुस्ताने लगी व उस पत्र के विषय में सोचने लगी ।

अचानक मन में खयाल आया कि "इसमें क्या लिखा होगा पापा ने? "

 कैसे पता चले कि इसमें क्या है? 

दिमाग मे एक विचार कौंधा व उस पत्र को आलपिन की सहायता से बड़ी बारीकी से खोल लिया ।

जैसे-जैसे पत्र पढ़ती गई आंखों से गंगा जमुना बरसने लगी ।

पापा ने लिखा था ," मेरी बेटी मेरा गुरूर है ,उसे केवल आपसे २ महीने की सहायता की आवश्यकता है कृपया उसे सहयोग करें व "प्रताड़ित" करने की कोशिश न करें।"


प्रज्ञा की आंखों से गंगा जमुना बह रही थी। 

अब तो प्रज्ञा का केवल एक ही उद्देश्य था ," पापा के विश्वास की जीत और आज सचमुच ,


" पापा का विश्वास जीत गया था ।" 


मौलिक , स्वरचित 


कुसुम पारीक


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Comments

Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓

  • Babita Kushwaha · 4 years ago last edited 4 years ago

    बहुत बढ़िया कुसुम जी

  • Kusum Pareek · 4 years ago last edited 4 years ago

    जी हार्दिक आभार आपका

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