शून्य
मैं तुम्हें छोड़कर अब कहीं नहीं जाऊंगा ,प्लीज इस जीवन की ढलती शाम में तुम मुझे छोड़कर कहीं मत जाओ।
" मुझे अपने किए पर बहुत पछतावा है , एक बार मुझे माफ़ कर दो ,परन्तु उन गिड़गिड़ाते हाथों व बेबस चेहरे की याचना को अनदेखा करते हुए कामिनी देवी महाप्रयाण को जा चुकीं थी ।
"अब संतोष कुमार जी के पास बेबसी के आंसू बहाने के अलावा कोई चारा भी नहीं था । आज कामिनी जी उन्हें छोड़कर गई हैं ,वह भी उनकी ही गलती से ।"
संतोष कुमार जी के नाम के विपरीत ही गुण थे ,उन्हें किसी भी चीज से सन्तोष नहीं था ।न धन का ,न सरल व सादगी पसन्द पत्नी का।
"इन्ही महत्वकांक्षाओं का परिणाम यह हुआ कि वे पैसे व सौंदर्य के तिलिस्म के पीछे भागते-भागते कब अपने परिवार से दूर हो गए इसका उन्हें कभीं भान तक नहीं हुआ ।"
उनकी बेरूखी की वज़ह से बच्चे तो हमेशा से उनसे दूरी ही बना कर रखते थे ।
शुरुआत में पत्नी समझाती भी थी ,परन्तु उनकी चकाचौंध भरी दुनिया का मद हमेशा अट्ठहास करता हुआ कामिनी जी की उपेक्षा ही करता रहा ।
धीरे-धीरे कामिनी जी मानसिक अवसाद से ग्रस्त होकर बिस्तर पकड़ चुकी थीं और जब सन्तोष कुमार जी का भी शरीर अय्याशियों से कमजोर पड़ने लगा तो उनकी आंखें खुली व घर लौटने का प्रयास किया ,लेकिन यह क्या ?
यहाँ तो उनके पास अब पछतावे को सुनने के लिए भी कोई नहीं हैं ,केवल शून्य में ताकती हुई वह दृष्टि है जो उनके इंतज़ार में दरवाजे को टुकुर टुकुर देख रही थी ।
कुसुम पारीक
मौलिक ,स्वरचित
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