"नीम गिलोय"
आज ठंड थोड़ी कम थी ,सूरज भी कोहरे से बाहर निकल कर ताप दे रहा था ।
मौसम बड़ा खुशगवार हो रहा था।
घर के सामने बने बड़े बगीचे में पेड़ों पर घोंसले बना कर रहने वाले पक्षी अपने बच्चों के लिए दाना पानी लाने के लिए उड़ चुके थे ।
अंदर रसोई में,शीला देवी नाश्ते की तैयारी कर रही थीं ।
उधर एक कमरे में रजत अपनी अलमारी में कुछ कपड़े ढूँढने की कोशिश कर रहा था।
अचानक उसका फोन वाइब्रेट होता है और वह इधर उधर देखते हुए उसे उठा लेता है ।
"हां कौशल,मैं आ रहा हूँ ,थोड़ी देर और इंतज़ार करो मेरा;
दादी घर के सामने ही बैठी हैं ।"
हाँ,हाँ--पैसे मैंने ले लिए हैं बस निलकता हूँ पांच-दस मिनट में ।"
रजत, जल्दी बाहर आओ,अपना टिफ़िन भी लेलो और नाश्ता कर लो ।"मम्मी ने परांठा प्लेट में परोसते हुए रजत को आवाज़ दी।
अचकचा कर रजत बोला,नहीं मम्मा आज मुझे भूख नहीं है ,अगर लगी तब कैंटीन से कुछ लेकर खा लूँगा," कहते हुए वह जल्दी से गैलरी पार करते हुए बरामदे में आ गया था ।
माँ की आलमारी से चुराए रुपये जो उसने जुराब में खोंसे थे उनको धीरे से दबा कर देखा और जब आश्वस्त हो गया तब दबे पाँव बाहर निकलने की कोशिश करने लगा ।
जैसे ही एक पांव आगे की ओर बढ़ाया,छोटे भाई मोक्ष की आवाज़ कानों में पड़ी ,"दादी!" इस नीम-गिलोय को कटवा क्यों नहीं देते ? चारों तरफ़ पत्तियां गिरा कर कचरा फैला देता है और फिर आपको उनको इकट्ठा करवा कर जलाना पड़ता है।"
रजत वहीं ठिठक कर खड़ा हो गया ।
दादी अपनी लाठी से जलती हुई आग में थोड़े से और पत्ते सरकाती हुई बोली ," बेटा यह नीम-गिलोय हमारे घर में केवल वृक्ष ही नहीं है बल्कि तीन पीढ़ियों की खून पसीने से सींची गई संस्कारों की बेल है ।
जहां पर संस्कार रूपी अमृत बेल होती है वहाँ कोई रोगाणु नहीं आ पाते और आसपास के वातावरण में उपजी नकारात्मकता भी अपने आप नष्ट हो जाती है।
मोक्ष कुछ समझने की चाह में आँखे फाड़-फाड़ कर दादी को देखे जा रहा था ।
रजत ने महसूस किया जैसे उसके पाँव जमीन से चिपक कर रह गए हैं।
रजत,रोहन व कौशल एक साथ एक दलाल से स्मैक खरीद कर कॉलेज में लड़के-लड़कियों को बेचने का प्रोग्राम था जिसमें हमें काफी मुनाफा होंने वाला था।
दादी ने आगे कहना जारी रखा ,"तेरे पापा के दादाजी ने भी इस अमृत बेल और नीम की तरह ही सबकी सहायता की थी व उनसे दुआएं पाई थीं ।
उसी का फल है कि कोई भी बुरा विचार या काम हमसे कोसों दूर रहता है ।
तुम्हारे और रजत जैसे होनहार व संस्कारी बच्चे, इसी तरह पीढ़ी दर पीढ़ी, पुण्य का ही प्रतिफल है।
बेटा यह केवल एक पेड़ ही नहीं है , विश्वास की जड़ है हमारे घर की ।
रजत के पाँव सुन्न पड़ने लगे थे ।
वह महसूस कर रहा था जैसे दिल का एक कोना पिघलने लगा है ।
लग रहा था जैसे आंखों से बहती हुई जलधारा नीम की जड़ों को सींच रहीं है ।
आत्म-मंथन का ज्वार ज़ोर पकड़ने लगा ।
दादी की आवाज़ अब सुनना बन्द होकर मन की आवाज़ सुनाई देने लगी थी।
दिमाग से जहरीली सोच पिघलने लगी और स्वतः ही मेरे पांव दादी की ओर मुड़ चले ।
दादी की गोदी में सर रखकर मैं फफक पड़ा ,
"दादी मैं बहुत बीमार हो गया ,मुझे भी यह अमृत बेल दो न।"
दादी ने हाथों से मेरा चेहरा ऊपर उठाया, उनकी अनुभवी आंखें सब कुछ पहचान चुकी थीं।
बेटा , जब तक हमारे संस्कारों की नीम-गिलोय घर में है तब तक तुम्हें कुछ नहीं हो सकता ।
कुसुम पारीक
मौलिक ,स्वरचित
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
वाह, क्या खूब, बेहतरीन
रचना का अंत भी एक सीख दे गया
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