"सामंजस्य"
घर की क्यारियों में पानी दे रही थी ,तभी पास वाले घर से लड़ने झगड़ने की आवाज़ आई ,मैंने ज्यादा ध्यान देना भी उचित नहीं समझा क्योंकि यह इस घर की आए दिन की कहानी है ।
दोनों देवरानी जिठानियों में वाकयुद्ध चलता ही रहता है व सास बेबसी का रोना लेकर कई बार मेरे पास आ जाती है ।
मैं एक पुराने पौधे के पास नए पौधे को रखते हुए सोचने लगी कि कहीं इसकी लम्बाई व घनी पत्तियों के पीछे ,यह छोटा वाला धूप ,हवा से वंचित न रह जाए ,लेकिन स्वत: ही विचार आया ,यह भी जीव का ही अंग हैं और शायद एक दूसरे के साथ अपनी भावनाओं व सम्वेदनाओं को समेटते हुए बारिश ,धूप के थपेड़े सहने में ज्यादा सक्षम बन पाएंगे ।
हाथ धीरे-धीरे खुरपी चलाते हुए मिट्टी खोद रहे थे और मन 23 साल पहले उस समय पहुंच गया जहां मैं शादी के बाद नई नवेली दुल्हन बनकर एक कस्बे में संयुक्त परिवार की बहू बनकर गई थी ।
मैं हॉस्टल में रहकर पढ़ी थी व खिलाड़ी भी रह चुकी थी ,इसलिए उन्मुक्तता व अल्हड़पन स्वभावतः ही मुझमें था ,परन्तु आलस नहीं था मुझमें ।
शादी के दो दिन बाद ही मैंने देखा कि छोटी जिठानी बर्तन साफ कर रही है ।
मेरे कदम भी उधर बढ़ चले ,एक तो ससुराल का भय ,दूसरा काम तो करना ही है ।
जब मैं वहां बैठी ,धीरे से मेरी जिठानी ने कहा ," विभा ,हम लोग अलग अलग परिवेश व हवा पानी में पले बढ़े होते हैं ,परन्तु ससुराल में सबको एक ही तराजू में तोला जाता है ।तुम कभी भी किसी की बात पर ध्यान मत देना ।"
थोड़ा रुक कर थोड़ा सोचते हुए वे फिर बोलीं,
"यह हम लोगों पर निर्भर करेगा कि जब हमारी तुलना की जाएगी तो उसे किस रूप में लेना है व हमें एक दूसरे के साथ किस तरह सामंजस्य बैठाना है ।"
वह दिन और आज का दिन ,इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम लोग अलग अलग रहने लगे गए लेकिन जो रिश्ता उस धूप में खिल कर बना वह सारे झंझावात पार करते हुए आज भी एक दूसरे के सहारे व सहयोग से ही चल रहा है ।
तब तक मेरे हाथ भी स्वत: ही छोटे पौधे को बड़े के साथ रख चुके थे ।
जो अब एक साथ लहलहाने के लिए तैयार थे ।
कुसुम पारीक
मौलिक ,स्वरचित
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