स्याह पन्ने
बेटा,"पिछले महीने तुम स्मैक तस्करों के साथ पकड़े गए थे , किशोर होने की वज़ह से तुम्हें ६ महीने के लिए बाल सुधार गृह भेजा गया है ।
आज मैं समय के उस कटघरे में खड़ा हूँ जो मुझे यह अहसास कराने के लिए काफ़ी है , ज़िन्दगी के खाली पन्ने पर तुम जो कुछ लिखोगे वह शिद्दत से उभर कर तुम्हारे सामने आएगा।"
तुम्हें नहीं पता बेटा!मैं एक साधारण मास्टर का बेटा था ,जो अपनी कर्तव्यनिष्ठा व ईमानदारी के लिए पहचाने जाते थे व उन्हीं के सद्कर्मों का ही फल रहा कि मुझे अच्छी शिक्षा-दीक्षा मिली।
माँ-पिताजी अपने अथक परिश्रम से मुझमें संस्कार उकेरने की कोशिश करते रहे और मैं भी उनके भरोसे को कायम रखता हुआ,सीढ़ी दर सीढ़ी ऊँचाइयाँ नापता गया।
" परन्तु जब मंजिल पर पहुंच गया तो नीचे की जमीन मुझे मेरे लिए बहुत छोटी लगने लगी ।"
"मुझे तो आसमान को छूना था ,उस ऊंचाई व वैभव का आनंद लेना था ,जो मेरे लिए ,बचपन से जवानी तक सपने जैसी थी।
"धीरे धीरे अपनी जड़ों को छोड़ता हुआ व गलत-सही का विचार किए बिना ,वहां पहुंच गया ,जहां चकाचौंध भरी दुनिया में ऐशो आराम की हर चीज थी ।
मेरी चाहत थी कि मेरे बेटे को मखमल भरी कालीन मिले जहाँ अभावों व बंदिशों के काँटे न हों।
मैं यही कोशिश करता रहा कि तुम ,वैभव व मौज मस्ती में ही पलो ।जिस सीमित जेब-खर्च से मैंने काम चलाया,उस दुःख की तपिश ,मैं तुझे महसूस भी नहीं कराना चाहता था ।
इस आभासी सुख ने कब तुझे गलत रास्ते पर धकेल दिया,मुझे एहसास तक नहीं हुआ ।
तुम्हारी माँ ने हम दोनों को ही रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन दम्भ भरे स्वप्निल आवरण ने मुझे कुछ समझने ही नहीं दिया।
जब वह संस्कारों व नैतिकता की बात करती तो मैं उसे दकियानूसी व "पुराने जमाने का कबाड़" कहकर मज़ाक बनाता व तुम भरपूर मेरा साथ देते ,"क्योंकि उसकी टोकाटाकी हमारी जिंदगी में रुकावट बनती थी।
"हमारी ज़िन्दगी के पन्ने केवल काले स्याह बनते जा रहे थे ।"
तुम्हारे सुधार गृह जाने के बाद , मैं रोज़ बगीचे में घूमने जाता था ,जहां खिलते हुए फूलों को देखकर सोचता था कि जब तुम ६ महीने बाद वापिस आओगे ,तब मैं तुम्हें, नए सिरे से नई खाद,पानी व हवा दूँगा।
मैं ग्लानि व पश्चाताप में आकंठ डूबा हुआ हूँ ,पता नहीं जब तुम वापिस आओगे ? मैं तुम्हें मिलूंगा भी या नहीं-----
इसलिए मेरी भावनाओं को शब्द देने के लिए इस डायरी में लिख रहा हूँ ।
तुम्हारे इंतज़ार में
तुम्हारा गुनाहगार पिता
डायरी पढ़ते-पढ़ते सुधार गृह से वापिस आए शुभम की आंखें बरबस ही छलक आई ---- बरबस ही पास के कमरे में सो रहे बीमार पिता से मिलने के लिए चल पड़ा ।
"एक नया अध्याय उसका इंतजार कर रहा था ।"
कुसुम पारीक
मौलिक ,स्वरचित
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