असगर की दुकान

"असगर की दुकान" कोई आम किराना स्टोर की कहानी नहीं है। यह उस जज़्बे की कहानी है जो नफ़रत की आंधी में भी मोमबत्ती की तरह जलता रहा। जब देश के कई हिस्सों में धर्म के नाम पर ज़हर बोया जा रहा है, तब असगर जैसे लोग दिखाते हैं कि सब्र, मोहब्बत और सेवा ही असली जवाब हैं। आज जब सोशल मीडिया पर बायकॉट ट्रेंड्स चलते हैं, जब नाम देखकर दुकानें चिन्हित की जाती हैं — तब हमें असगर मियां की दुकान याद रखनी चाहिए। वो दुकान नहीं, एक भरोसे की मिसाल थी। हमें भी सोचना चाहिए — क्या हमारी सोच इतनी सस्ती हो गई है कि हम नाम देखकर ईमान तय करने लगे हैं?

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fazal Esaf
fazal Esaf 28 May, 2025 | 1 min read

असगर की दुकान

पुरानी गली की आख़िरी मोड़ पर एक छोटी सी दुकान थी — टीन की छत, दीवार पर चिपके कैलेंडर, और लकड़ी का एक पुराना काउंटर। उस पर बैठा रहता था असगर मियां — उम्र लगभग साठ के करीब, चश्मे के पीछे से झांकती थकी हुई आँखें और चेहरे पर ऐसी मुस्कान, जो हर ग्राहक को अपनापन दे।

उनकी दुकान "ईमान किराना स्टोर" के नाम से मशहूर थी — न सिर्फ सामान की वजह से, बल्कि उनके सच्चे व्यवहार और नेक दिली के लिए।

वो सिर्फ़ नमक, चाय या साबुन नहीं बेचते थे — वो भरोसा, इज़्ज़त और मोहब्बत भी बाँटते थे।


शुरुआत की कहानी

कई साल पहले, जब इस मोहल्ले में बिजली की लाइन नहीं थी, असगर मियां टॉर्च की रोशनी में दुकान चलाते थे। बच्चों को उधार बिस्किट दे देते, बूढ़ों को बिना मांगे दवाइयों का इंतज़ाम कर देते। उनका कहना था:

"रिज़्क़ अल्लाह देता है, मैं तो बस ज़रिया हूँ।"

मुसलमान होने की वजह से कभी-कभी कुछ लोग ताना मारते —

“इनसे मत लेना, पता नहीं कहां से माल लाते हैं।”

लेकिन मोहल्ले के बुज़ुर्ग कहते —

“असगर भाई की दुकान पर जब तक ईमान है, मोहल्ले में अमन रहेगा।”


वो दिन

पर फिर एक दिन आया, जब हवाओं में ज़हर घुल गया। शहर में दंगा भड़क गया — और देखते ही देखते, इंसानों ने एक-दूसरे को मज़हब के चश्मे से देखना शुरू कर दिया।

गली के बाहर से कुछ शोर आया। “ये मुसलमान की दुकान है! बहिष्कार करो!”

कुछ नौजवानों ने उनकी दुकान के बाहर पोस्टर चिपका दिए —

असगर मियां चुपचाप खड़े रहे — ना कोई विरोध, ना गुस्सा।

एक पड़ोसी ने कहा, “चाचा, दुकान बंद कर दो कुछ दिन के लिए।”

उन्होंने सिर झुका कर कहा —

“अगर मैंने डरकर दरवाज़ा बंद किया, तो भरोसे की खिड़की कौन खोलेगा?”


तन्हाई का मौसम

अगले कुछ हफ़्तों तक दुकान वीरान रही। पहले जो भीड़ लगी रहती थी, अब वहाँ सन्नाटा था। उधार की कॉपियाँ सूख गईं, और शाम को उनके सामने बैठे बच्चे अब दूर से गुज़र जाते।

असगर मियां हर सुबह दुकान खोलते — जैसे अज़ान की आवाज़ के बाद मस्जिद का दरवाज़ा खुलता है, वैसे ही।

कोई आया तो मुस्कुरा देते, कोई नहीं आया तो कुरआन पढ़ते हुए बैठ जाते।

उनकी बीवी, अमीना बेगम ने कहा —

“इतनी बेइज़्ज़ती के बाद भी कैसे मुस्कराते हो?”

उन्होंने कहा —

“क्योंकि मैं नफ़रत नहीं बेचता… मैं सब्र रखता हूँ। शायद एक दिन लोग समझें कि दुकान बंद होने से पहले इंसान का दिल ना बंद हो।”


एक बच्चा और एक बदलाव

एक दिन दोपहर में एक बच्चा आया — रमेश।

उसने डरते-डरते कहा, “चाचा, मम्मी ने भेजा है… आटा मिलेगा?”

असगर मियां ने उसकी आँखों में देखा — मासूमियत और भूख का मेल था।

उन्होंने बिना कुछ पूछे बैग में आटा, चाय और कुछ बिस्किट डाल दिए।

“ये बिस्किट तुम्हारे लिए हैं,” मुस्कुराकर कहा।

शाम को रमेश की माँ खुद आईं। आँखें भीगी थीं।

“हमने कभी आपसे दूरी नहीं बनाई… डर गया था बस। माफ़ कर दीजिएगा।”

उस दिन से फिर एक-एक करके लोग आने लगे। किसी ने नमक लिया, किसी ने दाल। फिर सब्ज़ी वाले ने हाथ जोड़कर कहा —

“चाचा, आप न होते तो मोहल्ला और भी बिखर जाता।”


फिर से रौशनी

असगर मियां की दुकान अब फिर से आबाद थी — लेकिन अब सिर्फ़ सामान नहीं बिकता था, अब हर लेन-देन के साथ एक सबक बिकता था:

"ईमान की दुकान पर ताले नहीं लगते — चाहे दुनिया कितनी भी कोशिश कर ले।"

अब दुकान की दीवार पर एक नया बोर्ड लगा था:

"हिंदू-मुस्लिम का सामान नहीं, इंसानियत का सामान मिलता है यहाँ।"


संदेश

"असगर की दुकान" कोई आम किराना स्टोर की कहानी नहीं है। यह उस जज़्बे की कहानी है जो नफ़रत की आंधी में भी मोमबत्ती की तरह जलता रहा।

जब देश के कई हिस्सों में धर्म के नाम पर ज़हर बोया जा रहा है, तब असगर जैसे लोग दिखाते हैं कि सब्र, मोहब्बत और सेवा ही असली जवाब हैं।

आज जब सोशल मीडिया पर बायकॉट ट्रेंड्स चलते हैं, जब नाम देखकर दुकानें चिन्हित की जाती हैं — तब हमें असगर मियां की दुकान याद रखनी चाहिए। वो दुकान नहीं, एक भरोसे की मिसाल थी।

हमें भी सोचना चाहिए — क्या हमारी सोच इतनी सस्ती हो गई है कि हम नाम देखकर ईमान तय करने लगे हैं?

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