छज्जे पे टंगी दुआएँ
मुंबई के बाहरी हिस्से में बसी मुम्ब्रा की तंग गलियों में सुबह जल्दी उतरती है। दुकानों के शटर उठने से पहले ही यहाँ चाय के खोके से धुएँ की हल्की रेखाएँ उठने लगती हैं। ऑटो वालों की आवाज़ें, मस्जिद से आती नमाज़ की पुकार, और दूधवालों की घंटियाँ—ये सब उस बस्ती की सुबह के परिचित हिस्से हैं।
उन्हीं गलियों में एक तीन मंज़िला इमारत थी, जिसकी तीसरी मंज़िल पर रहता था एक टूटा-सा परिवार—नज़मा और उसकी बेटी हिना। एक ऐसा परिवार जिसे किस्मत ने कई बार परखा था।
नज़मा कोई पढ़ी-लिखी महिला नहीं थी, लेकिन उसकी आँखों में ग़ज़ब की सूझ-बूझ और चेहरे पर आत्मसम्मान की झलक थी। हिना उसकी एकमात्र बेटी थी, और शायद उसी के लिए वह हर दिन ख़ुद को दुनिया से लड़ने के लिए तैयार करती थी।
नज़मा सुबह पाँच बजे उठ जाती थी। सबसे पहले वुज़ू करती, फिर नमाज़ पढ़ती और फिर बिना आराम किए बिस्कुट फैक्ट्री के लिए निकल पड़ती। यह उसका पहला काम होता। वहाँ से दोपहर को लौटती और फिर मोहल्ले के दो घरों में बर्तन और झाड़ू-पोंछा करती। सब कुछ केवल इसीलिए, ताकि हिना की पढ़ाई रुक न जाए।
हिना नौवीं कक्षा की छात्रा थी। उसकी किताबें पुरानी थीं, यूनिफॉर्म भी तीन साल पुरानी, लेकिन उसकी आँखों में सपने चमकते थे। वह डॉक्टर बनना चाहती थी। शायद इसलिए नहीं कि उसे डिग्री चाहिए थी, बल्कि इसलिए क्योंकि वह अपने मोहल्ले के बच्चों को, अपनी माँ को, और ख़ुद को ये दिखाना चाहती थी कि वह भी कर सकती है।
एक दोपहर, नज़मा लौट रही थी, हाथ में बर्तन धोने का साबुन और एक प्लास्टिक की बाल्टी थी। गली से गुज़रते हुए वह सुन रही थी कुछ औरतों की बातें—
"बड़ी पढ़ाई-लिखाई की बातें करती है अब ये नज़मा... अरे किताबों से पेट नहीं भरता।"
उसने कुछ नहीं कहा। बस मुस्कुराई और ऊपर अपने कमरे की ओर बढ़ गई।
घर में घुसते ही हिना चुपचाप कोने में बैठी थी। किताब खुली थी, लेकिन नज़रों में धुंध थी।
"क्या हुआ, हिना?"
"स्कूल में... आज एक लड़के ने कहा कि हम लोग सिर्फ उर्दू तक ही ठीक हैं, डॉक्टर नहीं बन सकते। उन्होंने मेरा मज़ाक उड़ाया, अम्मी।"
नज़मा का दिल धक् से रह गया।
"और तूने क्या कहा?"
"कुछ नहीं। चुप रही।"
नज़मा ने उसका सिर सहलाया। फिर धीमे से कहा, "बेटा, दुनिया तुझसे तेरी पहचान माँगेगी, तेरा मज़हब पूछेगी, तेरी औक़ात नापेगी। लेकिन तू बस याद रखना—तू मेरी बेटी है। और मेरी बेटी कुछ भी कर सकती है।"
उस रात, छत से पानी टपकने लगा। उन्होंने टीन का डिब्बा रख दिया पानी पकड़ने के लिए। हिना की किताबें भीग न जाएँ, इसलिए नज़मा ने उन्हें छज्जे पर टांग दिया—जहाँ हवा चलती थी और कपड़े जल्दी सूखते थे।
छज्जा उनका अपना छोटा-सा आकाश था। वहीं नज़मा कपड़े सुखाती, वहीं हिना बैठकर पढ़ती, और वहीं माँ-बेटी दुनिया से बेख़बर होकर चाँद की ओर देखा करतीं।
नज़मा अक्सर कहती, "देख बेटा, चाँद भी आधा होता है कई बार, लेकिन उसका नूर कभी कम नहीं होता। तू भी भले आज अधूरी लगे, लेकिन अंदर से तू मुकम्मल है।"
महीने बीतते गए। हिना ने जी तोड़ मेहनत शुरू कर दी। स्कूल के बाद वह एक NGO के ट्यूशन सेंटर जाती, जहाँ उसे दो घंटे फ्री पढ़ाया जाता था। किताबें वहाँ से मिलीं, लेकिन हिना की लगन उसकी असली किताब थी।
एक दिन, मोहल्ले में मेडिकल कैंप लगा। हिना वहाँ खुद वॉलंटियर बनकर पहुँची। किसी ने पहचान लिया, "अरे, तू डॉक्टर बनेगी न? अब लोगों का BP चेक कर रही है?"
हिना मुस्कराई। जवाब नहीं दिया। नज़मा दूर से उसे देख रही थी, उसकी आँखों में पानी भर आया था—लेकिन वह जानती थी, ये आँसू कमज़ोरी के नहीं थे। ये तो उन दुआओं की बारिश थी, जो उसने बरसों से छज्जे पे टांगी हुई थीं।
एक शाम, बिजली चली गई। अंधेरे कमरे में नज़मा दीया जलाकर रोटी बेल रही थी। हिना मोमबत्ती के नीचे पढ़ रही थी।
तभी नीचे गली से आवाज़ आई, "पढ़ाई कर रही है डॉक्टरनी? हमारा नाम भी लिख ले, कल को काम आएगा!"
हिना मुस्कुराई। नज़मा चुप रही। लेकिन अगले दिन उसी लड़के की माँ नज़मा के पास आई, “अपनी बेटी से कहो मेरा बेटा भी थोड़ा पढ़ ले... उसे समझा दे, जैसे खुद समझती है।”
नज़मा ने मुस्कुरा कर कहा, “क्यों नहीं, जब तक रौशनी जल रही है, किसी को रास्ता दिखाने में क्या हर्ज है।”
फिर एक दिन हिना का इंटरव्यू था—शहर के एक बड़े स्कूल की स्कॉलरशिप के लिए। उसके पास पहनने के लिए सिर्फ वही पुरानी यूनिफॉर्म थी। नज़मा ने रातभर उसे धोया, इत्र लगाया और छज्जे पर टांग दिया।
सुबह वह यूनिफॉर्म सूखी हुई नहीं, चमक रही थी। जैसे उसमें खुदा ने अपना हाथ रख दिया हो।
हिना ने इंटरव्यू दिया। जवाब एक महीने बाद आना था।
उस एक महीने में, मोहल्ले की औरतें चुप हो गईं। बच्चे हिना से सवाल पूछते। ट्यूशन सेंटर में आने वाले बच्चे उसे 'आपा' कहने लगे।
फिर एक सुबह, डाकिया आया। लिफाफा था। हिना ने खोला। चुपचाप पढ़ा।
“क्या हुआ?” नज़मा ने पूछा।
हिना की आँखों में आँसू थे। उसने धीरे से कहा, “अम्मी… हो गया। स्कॉलरशिप मिल गई।”
नज़मा ने उसे गले से लगा लिया। उसके होंठ कांपते हुए बोले, “मैंने कहा था ना… दुआएँ लौटती नहीं। बस छज्जे पे टंगी रहती हैं। और जब वक़्त आता है, तो बरसती हैं… ऐसे।”
उस दिन पहली बार मुम्ब्रा की उस तंग गली में, एक छज्जे से हिना की किताबें नहीं, उसकी कामयाबी की रौशनी झाँक रही थी।
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