ईश्वर ने ना जाने कितनीं कलाकारी, कितना दिमाग लगाया होगा,जब उसने धरती की सर्वोत्कृष्ट रचना-मनुष्य का आविष्कार किया होगा। हमारी सारी समस्याओं का समाधान हमारे शरीर में ही समाया है।
ये मानव शरीर स्वयं ही एक फैक्ट्री की तरह कार्य करता है। इसके हर हिस्से का एक विशेष कार्य होता है, जो ये बखूबी निभाता है। ऑक्सीजन निर्माण भी उसमें से ही एक सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। मनुष्य बिना खाना खाए लंबी अवधि तक रह सकता है, बिना पानी पियें भी काफ़ी समय तक रह सकता है, परंतु बिना प्राणवायु के मनुष्य का जीना असंभव है।
मनुष्य का शरीर स्वयं ऑक्सीजन बना सकता है; जरूरत है, बस आवश्यक ईंधन की जो उसे योग और प्राणायाम से ही मिलता है।
हम मनुष्य इस प्रकृति की संतान हैं। हमारा शरीर भी प्राकृतिक है, किन्तु हमारी दिनचर्या ना जाने कितनें समय से अप्राकृतिक होती जा रही है। ज़िंदगी की दौड़ बस कृत्रिम वस्तुएँ एकत्रित करने में लगी है। ठंडी हवा चाहिए तो ए.सी. , कूलर हैं। घर बैठे-बैठे पूरी दुनिया से जुड़ना है; हज़ारों लोगों की फ्रैंड लिस्ट बनानी है; उसके लिए लगने वाले इंटरनेट के साईड इफैक्ट की ओर किसी का कोई ध्यान नहीं है। इन अदृश्य विकिरणों का मानव शरीर पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, इस ओर किसी का ध्यान ही नहीं है।
क्यों हमने अपनी प्रकृति और अपने शरीर पर भरोसा करना छोड़ दिया हैं? क्यों हम कृत्रिम सुख-सुविधाओं पर ज़्यादा विश्वास करतें हैं?
शायद हम संसार में अपनी श्रेष्ठता साबित करना चाहते हैं। ना जाने कैसी दौड़ में ये ज़िंदगी शामिल हो गई है, जबकि ये प्रकृति हमें एक संतुलित गति का ही संदेश देती है। हमारा दिल एक मिनिट में 72 बार ही धड़कता है; सूरज अपने नियत समय पर ही उदय होता है और नियत समय पर ही अस्त हो जाता है। उसे कोई जल्दी नहीं होती। पृथ्वी एक निश्चित समय से ही अपनी धुरी पर घूर्णन करती है; एक निश्चित समयावधि से ही सूर्य की परिक्रमा करती है। ये पेड़-पौधें, पशु-पक्षी, जीव-जंतु हमें संतुलन का ही पाठ पढ़ातें हैं। फ़िर हम मनुष्यों को क्या हासिल करना है, ये हम खुद अब तक समझ नहीं पाएँ हैं।
हम प्रकृति की संतान हैं। हमें कृत्रिम संसार से कम नाता रख कर प्रकृति से जुड़ना होगा। पर्यावरण के शुद्धिकरण के उपाय अपनाने होंगे; चाहे वो वृक्षारोपण हो, वन्य जीवों का संरक्षण हो, जल संरक्षण हो। ये सभी हमारे पारिस्थितिक तंत्र के विशेष घटक होते हैं।
हमें ईश्वर की दी हुई इस नेमत-हमारा शरीर की योग्यता को समझना होगा। नियमित प्राणायम और योग से अपनी श्वसन प्रणाली को मजबूत बनाना होगा। अपनी स्वत: की ऊर्जा को जागृत करना होगा। ये बहुत ही छोटे और मुफ्त उपाय हैं। अन्य उपायों के लिए तो हमारा सर्वश्रेष्ठ दिमाग है ही, चाहे वो ऑक्सीजन बनाने के कारखानें हो या महँगी चिकित्सीय सुविधाएँ हो। ये सर्वश्रेष्ठ दिमाग ऐसा है कि ये प्राणवायु बना भी लेगा और फ़िर एक दिन अवसर पाकर जमाखोरी, मुनाफ़ाखोरी, घूंसखोरी के परचम लहरा भी लेगा।
हमें ईश्वर की बनाई इस सुंदर सृष्टि का भक्षक नहीं संरक्षक बनना हैं। हमारे शरीर का कारखाना सुचारु रूप से चलने लगेगा तो समस्याएँ स्वत: ही नगण्य होने लगेंगी। हमें अपने विचारों में उदारता लानी होगी। आखिर ये संसार सिर्फ़ हमारा नहीं है, ईश्वर की बनाई हर सूक्ष्म से दीर्घ रचना का भी है।
अधिकांश संभावनाएँ हमारे शरीर और प्रकृति में ही हैं। मूर्ख मनुष्य कृत्रिम सुविधाओं को एकत्रित करने की लालसा में, ईश्वर की दी इतनी सुन्दर सुविधा प्रकृति की ही अवहेलना करते जाता है।
माटी का ये तन, एक दिन माटी में ही मिल जाना है
फ़िर मूर्ख मनुज के पास माटी से विमुख होने का ही हरदम क्यूँ एक बहाना है
धरती की सर्वोत्कृष्ट रचना को,धरती पर आकर ना जाने क्या सिद्ध करके जाना है
माटी का ये तन एक दिन माटी में ही मिल जाना है।
स्वरचित एवम् मौलिक
दीपाली सनोटीया
28/04/2021
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
बहुत बढ़िया
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