मुझे बचपन का एक खेल याद आ रहा है जिसमें हम बच्चें एक गोल घेरा बना लेते थें, फ़िर उस घेरे में घूमते हुए बोलतें थें ...
जंगल में आग लगी दौड़ों बच्चों दौड़ों
स्कूल की घंटी बजी टन टन टन...
आज के परिदृश्य को देखते हुए कितना सच साबित हो रहा है बचपन में खेले उस खेल का वो जुमला... जंगल आग की लपटों में जल रहें हैं और हमारे नौनिहालों के कान स्कूल की घंटी सुनने को तरस रहें हैं।
पिछले दिनों हर आठ-दस दिनों के अंतराल में मैने अखबार में किसी ना किसी जंगल के जलने की खबर पढ़ी।
कभी उत्तराखंड, कभी मिज़ोरम, कभी उदयपुर, तो कभी ग्रीक।
क्या ये इत्तेफ़ाक है? या कोई चेतावनी या फ़िर कोई मनमानी!
क्या ये नज़र अन्दाज़ करने वाली बात है? धरती के फेफड़ें धुं-धुं जल रहें हैं और हमारे फेफड़ें प्राण वायु को तरस रहें हैं। ये कैसा मज़ाक है? क्या ये व्यापार की नई स्ट्रेटजी है? हम प्रोडक्ट बना रहें हैं, बस उनके लिए डिमांड को बढ़ाओ और सारे ऑक्सीजन देने वाले जंगल जलओ।
यूं ही सारे जंगल जल जाएँगें, तो क्या हमारे बच्चें ऑक्सीजन सिलेंडर का भार उठायेंगे!
जिस दिन से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई है उसी दिन से धरती पर मात्र 21% ऑक्सीजन है। इसका साफ़-साफ़ मतलब ये ही है कि इतनी ऑक्सीजन जीवन के लिए पर्याप्त है।
अर्थात् सही मुद्दा ऑक्सीजन बनाने का नहीं अपितु संपूर्ण पर्यावरण संरक्षण का है।
विकास की जिस राह पर हम चल पडें हैं वो राह ही गलत जान पड़ती है। विकास सही मायनों में कुदरत के साथ होता है, कुदरत के खिलाफ़ नहीं। हमारा इरादा तो नेक है,पर हम पथभ्रष्ट हैं। हमें अपनी राह बदलने की जरूरत है।
ये पृथ्वी पर्वत, पठार, मैदान, द्वीप, सागर और मरुस्थल में विभक्त है, जिनमें अपने आप परिवर्तन होते रहतें हैं। प्रकृति ने अपनी राह स्वयं तय कर रखी है। हमे अपने विकास की राह उसके समानांतर रखना है, उस राह को काट कर नहीं। हमारी जिज्ञासाएँ प्रकृति को जानने के लिए होनी चाहिएं, ना कि प्रकृति को नष्ट करने के लिए।
ये धरती पहनें तो केवल हरा-भरा आँचल ना कि कॉंक्रिट का लिबाज़। ये लिबाज़ धरती की प्यास बुझने ही नहीं देता। मानसून हर वर्ष आता है और अपना काम करके चला जाता है। बस हम अपनी गलती नहीं देख पा रहें हैं। जिसके परिणाम स्वरूप उपजाऊ धरती प्यासी ही रह जाती है।
असल मुद्दा, जो हमे प्राप्त हैं उसका संरक्षण करने का है। चाहे वो भूमि संरक्षण हो, जल संरक्षण हो, वन्य संरक्षण हो, जीव संरक्षण हो या वायु संरक्षण हो।
ये उत्तरदायित्व हमारा ही है क्योकि प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग करने में हमसे कोई भी होड़ नहीं कर सकता। हम सर्वश्रेष्ठ कृति जो कहलाते हैं।
हम सर्वश्रेष्ठ तभी हो सकतें हैं, जब हम सबका कल्याण कर सकें। सबके कल्याण में ही हमारा स्वार्थ है। आखिरकार प्रकृति की जीत में ही हमारी जीत है। विलासितापूर्ण जीवन की चाहत से हमारे स्वयं के अस्तीत्व पर ही खतरा मंडरा रहा है।
महामारी के इस दौर ने फ़िर से एक गंभीर चेतावनी दी है...हम अब भी नहीं सुधरेंगें तो कब सुधरेंगें?
ओढ़ रखा था भूमि ने हरा-भरा आँचल,
तार-तार खींचा रे मानव तूने वो पल-पल।
क्षीण हुई ये भूमि और रूठ गया आकाश,
देख नज़ारा प्रलय का तुझ पर पड़ा ना कोई प्रकाश।
देती रहती भूमि तुझको हर दम जीवन दान,
जाग जा अब तो सींच ले उसको कर ले तू श्रमदान।
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