खाली जेबें

बंद, बेरोजगारी, आम को किस गर्त तक ले आती है।

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Deepali sanotia
Deepali sanotia 20 Feb, 2022 | 1 min read

वीरान सड़कों पर नज़रें गड़ी थीं

थोड़ी हलचल का इन्तज़ार था

पेट में भूख की लपट थी

कहीं पर रोटी भी बिकाऊ थी

पर टटोली, तो खाली थीं जेबें।


आवाज़ें मौन को विवश थीं

पहली बार हो रही कशमकश थी

चेहरों पर भी पहरे थें

साँसों पर भी हो गया था वश

किसी का हाथ थमाना तो चाहा

पर टटोली, तो खाली थीं जेबें।


व्यापार सारा बंद हो चला था

गलियों में सुनसान हो रहा था

कहीं साँसों का भी सौदा हो चला था

चंद सांसें खरीदना जो चाहा

पर टटोली, तो खाली थीं जेबें।


बच्चा-बच्चा दीवारों की ओट में खड़ा था

बचपन की राह में कोई रोड़ा-सा अड़ा था

शिक्षा का आंगन सूना हुआ

ज्ञान एक छोटी खिड़की में ही सिकुड़ा था

कईयों ने वही पाना चाहा

पर टटोली, तो खाली थीं जेबें।


चेतना सुप्त हो चली थी

मानो पहले की दुनिया ही भली थी

बंद घरों में गति शून्य हो रही थी

विकास-वृद्धि की चाह तो जगी

पर टटोली, तो खाली थीं जेबें।


(स्वरचित एवम् मौलिक)

दीपाली सनोटीया








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