प्रश्न भी मैं, उत्तर भी मैं
फिर भी निःशब्द, स्तब्ध सी मैं
मैं कौन हूँ?
बार-बार यही सोचती कौन हूँ मैं?
डूब रही हूँ ज़िम्मेदारियों के बादलों में
पिघल रही हूँ सूखते-तपते ख़्वाबों में
मुरझाई रातों की टहनियों से फूटती नव कोपल हूँ
मैं कौन हूँ?
बार-बार यही सोचती कौन हूँ मैं?
प्रश्न भी मैं, उत्तर भी मैं
फिर भी निःशब्द, स्तब्ध सी मैं
गर्म रेत पर उभर रही तरंगों सी
झुलसाती लू के वेग में उड़ती उमंगों सी
कहीं जाकर तो शीतल बयार होगी
ऊपर चांदनी तो नीचे ठंडी पड़ती रेत जीवन पर निसार होगी
रेत सी ही तपती फिसलती हूँ
मैं कौन हूँ?
बार-बार यही सोचती कौन हूँ मैं?
प्रश्न भी मैं उत्तर भी मैं
फिर भी निःशब्द स्तब्ध सी मैं
झूमती फसलों पर उग आई रोटी हूँ
कसौटी पर हर बार उतरने वाली खरी गोटी हूँ
पहाड़ों पर तन कर खड़ी सभी को देखती चोटी हूँ
यहाँ सभी कहते हैं कि बहुत ही छोटी हूँ
मैं कौन हूँ?
बार-बार यही सोचती कौन हूँ मैं?
प्रश्न भी मैं उत्तर भी मैं
फिर भी निःशब्द स्तब्ध सी मैं
करवटें लेती रातों के सिरहाने रखा तकिया हूँ
ओढ़ती चादरों पर खिल आई बहारों की बगिया हूँ
आँखों में आकर बसने वाली सूकून भरी नींद हूँ
मैं कौन हूँ?
बार-बार यही सोचती कौन हूँ मैं?
प्रश्न भी मैं उत्तर भी मैं
फिर भी निःशब्द स्तब्ध सी मैं
मेहनत का निचोड़ा हुआ पसीना हूँ
मेहनत से लदे हुएँ फलों का महीना हूँ
चमकती पसीने की बूँद में छुपा हुआ नगीना हूँ
मैं कौन हूँ?
बार-बार यही सोचती कौन हूँ मैं?
प्रश्न भी मैं उत्तर भी मैं
फिर भी निःशब्द स्तब्ध सी मैं
स्वरचित एवं मौलिक
दीपाली सनोटीया
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
No comments yet.
Be the first to express what you feel 🥰.
Please Login or Create a free account to comment.