"वो कहीं नहीं है "
उसकी आँखों में भी सपने है, प्यास है, आग है और हर सुख पाने की चाह है। पर सारे कुछ मरीचिका से आभासी दूर बहुत दूर दिखते है। उसके सहमते एहसास के भीतर हलचल मची है, वो जमुना के पानी में कभी छप्पाक से गोते लगाती है तो कभी ताज की संगमरमर की दीवारों से लग कर अपने गहनाते हुए वजूद को सिसकियाँ लेती हवाओं में ढूँढती है।
खुद को ढूँढते अनगिनत लोगों के मेलों में बर्फ़ सी ठंडी सुलगती आँखें पथरा जाती है, पहचानी पगदंडीयों पर, दूर दूर तक निहारते शून्य में तकती है, पर
ज़िंदगी की चद्दर ओढ़े सैकडों तागो में उलझी वो कहाँ है ?
सहमी, सिमटी रीढ़ को तान लिया है
बोझ के ज़ख़्मों का मरहम ढूँढ रही है।
निशान कुछ मिट गए है उसके कदमों के वक्त की मिट्टी ने एसे धोया है अरमानों को हल्की-फुल्की हंसी को तरसती प्यासी क्यारी अपने वजूद की कोंपले ढूँढ रही है।
"है ना सन्नाटा ? कोई आहट नहीं, कोई साया नहीं सूनसान राह की मुसलसल बहती धार में मैं कहीं नहीं" वो कहीं नहीं।
जी तो रही है पर जीवन कहाँ मुस्कान में पड़ रहे बल को कौन पहचाने, अश्कों के ज़रिए एक आग पी रही फूतरी को कौन जानें। मर्द की बनाई दुनिया में कुछ बंदिनी दीपक लिए गम का हाथों में पहचान को तलाशते बिना पते की भटक रही कोई क्या मानें।
जीवन यज्ञ में खुद को जलाकर आहुतियां देते जलते भूनते आँसू पिते थक गई उस नारी की सोच की परिधि कोई क्या मापे। मौन की तुरपाई से जोड़ लिए लब, शब्द घट से आज़ादी लफ्ज़ का नाश किए बंदीश अपना कर मौनी कहलाती अबला की पीर कोई क्या समझे।
शीत अहसास साँसों में भरे ना इस घर की ना उस घर की कहलाए वजूद को तरसती कुछ अभागिन की उलझन ना मैं जानूँ ना तू जानें। नहीं बदला कुछ भी चंद मानुनी के लिए दो सदी पहले की दहलीज़ पर खड़ी लाँघने को बेताब देहरी ब्याहता की असमंजस कोई ना पहचाने।
सदियों से विमर्श की कहानियों से लिपटी साड़ी का पल्लू संभालें शराबियों के पैरों तले रौंदी जा रही दर्द की मूरत को सम्मानित करते कौन तराशे।
#भावु
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