एक तरफ़ खामोश मोहब्बत

खामोश मोहब्बत

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Bhavna Thaker
Bhavna Thaker 18 Nov, 2020 | 1 min read
Prem Bajaj

"एक तरफ़ा खामोश मोहब्बत"

मैं हैरान हूँ उसके प्रति मोह का धागा इतना अटूट क्यूँ है ? हर आत्मिक संवेदना से निजात पा लिया फिर उसके उपर क्यूँ अटकी है कशिश की कोई एक गांठ। कितनी सुलझाई उलझती ही जाती है।

स्याही रात की तन्हाई खिंचकर ले जाती है उसकी तस्वीर के भीतर, मैं आँखें मूँदे इतना ही कह पाती हूँ... "नहीं जी सकती तुम्हारे बगैर" कोई लुभावनी अदा नहीं उनमें फिर भी हर अदा बेमिसाल है, चाहूँ मैं उसे इतना चाहूँ की चाहते हुए खुद चाहत बन जाऊँ...

मैं हैरान हूँ, डूबती ही जाती हूँ उसकी आँखों के भँवर में। मैं नहीं जानना चाहती वो मुझे चाहता है या नहीं मेरी शिद्दत काफ़ी है लापरवाह से क्या लालच करें कोई।

यादों के पंछी मन के पिंजर से आज़ाद होते पुकारते है जब बेकल से एक नाम तब मेरी सारी संबित जाग उठती है। जलते हुए उर के आकाश की खिड़की कैसे से बंद करूँ, दूर से बाँसुरी की धुन सा निनाद उसकी आवाज़ सा बयार संग बहता मेरे रोम-रोम में शीत युद्ध का आगाज़ छेड़ जाता है। तब ठिठुर जाते है मेरे जज़्बात जैसे अश्विन के महीने में पूरी रात बर्फ़ गिरी हो। जलते बल्ब की हल्की रोशनी में ढूँढती हूँ एक चेहरा।

आँख मिचौली खेलें वो हर बार छुप जाता है... सारी संज्ञाए चीरकर मैं अद्रश्य होना चाहती हूँ, पर उसके मोह की दहलीज़ पार करना मुमकिन नहीं। अबीर सी मैं गुलाल सा वो धवल संग लाल मिले तो कोई गुलाबी सूरज उगे ना....जिसकी कोई आस नहीं।

अनंत काल से ओझल है वो, मेरी पीर ढूँढते थक गई यमुना के घाट पर बैठे कई शाम बीती, और भी बीतेगी जानती हूँ खाली ही लौटना है। भूली हुई कहानी सी भटक रही हूँ इंतज़ार का दरिया आँखों में लिए। थकती नहीं, रुकती नहीं चाहत मेरी मन चाही, मुझे बोझ नहीं लगती। दर्द भी सुखद लग रहा है उसके खयालों में पलते। उसकी खामोश तस्वीर में कैद है मेरे स्पंदन पिघल कर बह नहीं जाते। दर्द को अश्कों से नहलाती हूँ जितना उतना और निखर आता है।

उदासी की परिभाषा बन गई हूँ। आश्रित जो हूँ उसकी बेरुख़ी से भरे व्यवहार की। अपेक्षा नहीं, समर्पित हूँ। इश्क की क्षितिज पर डूब रहे है मेरी चाहत के बिंब।

वो भी जानता है संभव नहीं मेरी वापसी उसके वजूद की जड़ों में बो दिया है मैंने खुद को। वो मेरी शिद्दत के सम्मान में सर तो झुकाता है। वो मेरे साथ तो है पर पास नहीं। कोई पुल नहीं दोनों के दरमियां, फिर भी जुड़े तो है मेरी चाहत की शिद्दत से उसकी बेरुख़ी मिलने जो आती है और दो बूँद मेरी पलकों पर ठहर जाती है, ये रिश्ता कुछ यूँ गहरा है। मोह के धागे उसकी ऊँगलियों से जो उलझे है।

(भावना ठाकर, बेंगुलूरु)#भावु

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