तकती है जब वासना सभर आँखें
उधेड़ कर रख देती है
तितली के पूरे अस्तित्व को
कुछ कड़वे स्पर्श की भाषा समझते
मर जाती है आत्मा।
ताउम्र उस दंश के निशान
गढ़ जाते है मन की ज़मीन पर
धीरे-धीरे कमज़ोर करते
निगलते आत्मसम्मान को।
खंडित होते ही सुंदरता के भीतर
सम्मान का स्खलन होता है
आँखों के भीतर नाखून रखने वाले
जब नौचते है उपरी परत को नज़रों से।
नहीं होती वो नज़र तेज़ चाकू से कम
जो करती है बलात्कार
नखशिख नारी तन का।
नहीं छिपा पाती कोई चिलमन
बेटी के सिने पर पड़े दुपट्टे को चीरकर
आरपार हो जाती है जब
हवस की लौ किसीकी आँखों से बहती।
द्रवित होते सिकुड़ जाती है तनया
खुद को खुद में समेटकर
वार जब होता है किसी दरिंदे की
गंदी नियत का देह पर।
उस एहसास को न शब्द तोल पाते है
न ज़ुबाँ से बयाँ होता है
अपमान की आग में जलने वाली का
मन तार-तार होता है।
डरती है, छिपती है, घबराती हुई
न कुछ बोल पाती है
वहशीपन का शिकार होने वाली
बेटी की आत्मा लहू-लुहान होती है।
#भावु
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