कृषक की कहानी को क्या बयाँ करें कोई कविता। जगदाधार अन्नदाता धरती का लाल है रोटी का रचयिता कम्माल। क्या-क्या नहीं सहता कुदरत के वार कभी सूखा, कभी ओले तो कभी अतिवृष्टि की मार।
कर्ज़ लेकर मेहनत से बोता है धरती के सिने में अपने हाथों से सोना और बहा ले जाती है बाढ़। बेबस सा देखता रहता है अपनी आँखों के सामने उपर वालें के अन्याय का अतिसार।
बरसा रहा सूरज अनल, भूतल तप्त सा जल रहा चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा, कृषक है कितना शोषित पर सुखाकर हल तथापि चला रहा पेट हमारे भरने की ख़ातिर वो निज शरीर को जला रहा बिना जानें बिना समझे सियासती चाल।
अधिकारी है महलों का और झोंपड़ी लिखी लकीर भरता है जो सबका पेट खुद सोए पिएं सलिल। कृषक है कितना बेबस लाचार, ऐसे में क्या लिखें कोई अन्नदाता का हाल।
(भावना ठाकर, बेंगलोर)#भावु
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