कुछ मांग सकती हूँ क्या?
चाहती हूँ तुझ में सिमटना जी भर कर
मेरी आँखों में अश्क उभर आते है,
घुटन महसूस होती है
मुद्दतों से दिल का संवेदनशील कोना बस चुपचाप गुड़ सा मीठा प्यार चबाते उब सा गया है....
ये क्या भला झील सी शांत ज़िंदगी में कोई रंगीनियाँ ही नहीं
गद्दर मचाते है मेरे तेज़ाबी खयालात तुम्हारी फाॅर्मल सी नोर्मल सी चाहत की रिमझिम में नहाते, धुँआधार बरसों ना कभी..!
"मैं तुमसे सिर्फ़ बेइंतेहाँ प्यार ही नहीं चाहती"
तुम्हारा गुस्सा, तुम्हारी पसंद, नापसंद, मेरी गलती पर तुम्हारी अकुलाहट,
तुम्हारे साथ हर छोटी-बड़ी बात पर बहस कर लड़ना झगड़ना चाहती हूँ..!
तुम्हारा अकडूपन तुम्हारा रुआब से मेरे उपर अपना हक जताते देखना चाहती हूँ..
एक दूसरे पर गुस्से से फेंककर तकिये से रुई उड़ाते हुए रोते-रोते हंसना, और हंसते-हंसते रोना चाहती हूँ..!
मैं चाहती हूँ गुस्से से तकिये में मुँह छुपाकर आधी रात तक रोती रहूँ और तुम मेरी उलझी लटों को सँवारते मेरे गालों पर पसरे आँसूं अपने लबों से पीओ
हक से रूठना चाहती हूँ और तुम्हें जबरदस्ती अपनी और खिंच कर तुम्हारे गाल काटना चाहती हूँ..!
एक भरापूरा सुखी दांपत्य जैसे हर आम पति-पत्नी जीते है सुना है मैंने "झगडे के बाद का प्यार मौसम की पहली बारिश सा होता है"...
तुम सुनी सुनाई बातों से परे एक सीधे, सरल मेरी हाँ में हाँ मिलाने वाले, मेरी खुशी में अपनी खुशी ढूँढने वाले पग-पग मेरे पंखुड़ियां बिछाने वाले क्यूँ हो..!
मुझे एक दायरे में सिमटा समुन्दर नहीं बल्कि पर्वत की चोटी से थनगनते निकलता तूफ़ानी आबशार चाहिए,
जो मेरे जैसी चंचल नदी को अपनी आसमान सी असीम बाँहों में समेट कर अपने संग बहा ले जाए..!
तुम्हारे इस आलिशान आशियाँ में एक सोफ़ेस्टिकैटेड ज़िंदगी जीते दम घूट जाएगा मेरा...
ऐसा महसूस होता है मानों शांत सुघड़ नीड़ में परिंदा दाना चुगते थोड़ा सा चहचहाते अंदर ही अंदर मर रहा हो..!!
शायद दो गलत तार जुड़ गए है तुम वरमाला के फूल से आसपास सुगंध फैलाते मोगरे से, मैं लग्न वेदी के यज्ञ की आग सी जो अपनी तपिश से पत्थर को भी पिघलाने वाली..
क्या तुम कभी मोम से पिघल कर ढ़ल पाओगे मेरे साँचे में?
चिर विरह में प्रलयानील से बरसों ना,
"पिघल जाओ ना खिलखिला उठेगा ये सुस्ताए हुए पड़े चाहत का आशियाना"
(भावना ठाकर) बेंगलोर
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