"दर्द का चोला"
मेरी आखों की पुतलियाँ खुशीयाँ पाने से डरती है, गम की बस्ती बसाए अश्कों के समुन्दर में रहती है।
दर्द सहते उम्र बीती डरूँ हंसी से तो अपराध क्या मेरा, खुशियों की चद्दर छोटी मेरी वेदना का बड़ा वितान है।
सिरा एक खिंचूँ सामने के सारे फट जाते है, कौनसी शै में खुद को छुपाकर रख लूँ सबको मुझे भूल जाने की आदत है।
दर्द के रंगों से रंगी है ज़िंदगी मुझे इन्द्रधनुष की आदत नहीं, अजन्ता की मूरत सी अदाएँ नहीं मुझमें भावों के प्रदर्शन के अभाव की मारी।
स्पंदन का पहरन कोई दे तो उतार दूँ दर्द का फटा चोला, रोज़ रोज़ सिलने की जफ़ा से निजात पा लूँ।
चखा नहीं दिल ने अपनेपन का स्वाद कभी, मिले कहीं से चुटकी भर तो
लज़्ज़त मैं भी ले लूँ खुशीयों की थोड़ी।
(भावना ठाकर, बेंगुलूरु)
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