विमर्श को जला दूँ

विमर्श को जला दूँ

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Bhavna Thaker
Bhavna Thaker 16 Dec, 2020 | 1 min read

वापस ले रही हूँ शब्दों के सारे शृंगार जो पेड़ों को सुनाया था कभी, मन करता है हर पन्ने को उखाड़ फेंकूँ हवन करूँ और होम दूँ।


उसी जगह पर खड़ी है कुछ नारियों की किस्मत जहाँ से विमर्श में टपकी थी कुछ विद्रोही वामाओं की कलम से बूँदें स्याही की।


नहीं छूते शब्दों के बाण कुछ खुराफ़ाती दिमाग ने मर्दाना अहं को नखशिख अंगीकार किया है।

 

अस्तित्व खो चला कई विद्रोहियों का कुछ मूर्तियों की पेरवी करते, जड़ समेत जाने कब उखाड़ पाएंगे भीमकाय बौने विचारों को।


गर्वित सी निज गर्दन तानें सारी आँखों में देखूँगी आज़ादी का आह्वान वो सदियाँ दूर बहुत दूर डेरा डाले सुस्ताए पड़ी है।


मुस्कुराती उषा जानें कितनी स्याही का बलिदान लेगी कब होगा उस नीड़ का निर्माण हाथों में हौसले का तिनका लिए खड़ी हूँ। 


जो सुकून की साँसें दे वो बयार दब चुकी है पितृसत्ता के दमन घिरे पहाड़ों के पिछे कहीं, नवगान का सुख ढूँढती कुछ नारियाँ गाए जा रही है दु:ख घिरे राग।


शब्द मेरे नासाज़गी शोषित करते पिघल रहे है कालजयी तथ्यों को कब तक ढ़ालूँ नया क्या लिखूँ अब तक पुराना ही ज़हन की दहलीज़ पर पड़े रो रहा है।


पीढ़ीयां आती जाती रहेगी कुछ औरतों के लिए लकीरें वही रहेगी, समय बदलता रहेगा, ख़याल नहीं। लो अग्नि संस्कार किया स्त्री विमर्श में अपने हाथों से लिखें पृष्ठों का।

#भावु

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