"कोई आज़ादी को ढूँढ कर लाओ"
लड़कीयाँ कोई भोगने की चीज़ है क्या की हर कुछ दिन बाद कहीं ना कहीं दरिंदे वहशीपन से अपने संस्कारों की धज्जियां उडाते है, किसी मासूम की इज़्जत उतार कर मार देते है।
जब-जब बलात्कार की घटना घटती है तब लड़कीयों के वस्त्रों पर, उनकी आज़ादी पर या लड़कीयों की अदा पर सवाल उठाकर टिप्पणी करते बलात्कारीयों का बचाव करने वालें निकल पड़ते है बलात्कारियों को अपने गिरहबान में झांकने की सलाह नहीं देते है की अपनी नज़र में पवित्रता रखो। आठ महीने की बच्ची, दो साल की या चार साल की बच्चियाँ कहाँ अंग प्रदर्शन करते निकलती है कि भेड़िये उन पर भी टूट पड़ते है। अच्छा मर्दो और लड़को का उन्माद और सेक्स की आग उसे जलाएँ तो वो किसी भी लड़की को पकड़ कर बुझा लेंगे। तो एक सवाल पूछना चाहेंगे कि सुना है कभी कि दरिया किनारे या स्विमिंग पूल पर किसी मर्द या लड़के को नहाते देख तीन चार लड़कीयाँ आकर्षित होते उस लड़के को जाकर उठा ले गई और रेप कर दिया हो। बिलकुल नहीं सुना होगा....पर क्या लड़कीयों में वो उन्माद या एहसास नहीं होते। उनकी शारिरीक जरूरतें नहीं होती। पर ना ये काम समाज व्यवस्था के खिलाफ़ है, कानून और परंपरा के खिलाफ़ है, ये संस्कारों के खिलाफ़ है। पर यही सारी रवायते उन सांड़ों के लिए क्यूँ लागू नहीं होती। किसने हक दिया अपनी वासना बुझाने के लिए किसी भी लड़की को जबरदस्ती उठाकर रौंदने का। लड़कीयों को बचपन से सिखाया जाता है कि अपनी भावनाओं को खुले मन से व्यक्त करना ठीक नहीं, एक गरिमा और अदब सिखाई जाती है। यहाँ एक पुरानी कहानी "चोखेर बाली" याद आ रही है जिसमें एक विधवा अपने पसंदीदा पुरुष के सामने अपनी भावनाओं को खुले मन से समर्पित करती है। वो अपनी शारीरिक जरुरत की अभिव्यक्ति नहीं करती बस निर्मल चाहत को पेश करती है। पर इतनी सी बात के लिए लेखक को गुनहगार के कठघरे में खड़ा कर दिया गया था। यही बात साबित करती है की लड़कीयों के लिए बंधन, पाबंदी और मर्यादा की बंदीशे और लड़को को पूरी आज़ादी। घटिया मानसिकता वालें दरिंदों की फ़ितरत को बदलने के लिए कड़े कानून बनाने होंगे तभी जाकर शायद ये वहशीपन रुकेगा। वरना तो ये सिलसिला यूँही चलता ही रहेगा और अब तो घर में घुसकर घरवालों के सामने ही दरिंदे बेटीयों की इज़्जत लूटने से नहीं डरेंगे। बलात्कार सिर्फ़ शारिरीक संबध का ही नाम नहीं होता। कहीं भी राह चलते वेधक नज़रों से महिलाओं के वक्ष को घूरते, बस में या ट्रेन में भीड़ का फ़ायदा उठाकर लड़कीयों के गुप्त अंगों को छूने की या दबाने की कोशिश भी एक तरह का बलात्कार ही हुआ। ऐसे हादसों से आहत होने वाली लड़कीयाँ या महिला की डर के मारे रूह काँप उठती है। और शर्म के मारे रुआंसी हो उठती है।
सुना है कभी किसी लड़की ने ऐसा किया हो यही बात साबित करती है कि लड़कीयों में संयम और तहज़ीब कूट कूटकर भरे है।
एक सवाल मन को कचोटता रहता है कि जब बलात्कार करने वालें गुनहगारों के वकील उनको बचाने के लिए ज़मीन आसमान एक करते है तब उनके घर की महिलाएं ये कैसे बर्दाश्त करती होंगी। माना कि उनका ये पेशा है पर क्या एक मासूम की इज़्जत और ज़िंदगी के आगे पेशा सबकुछ हो गया। उस कमाई से बनी रोटी का निवाला कैसे हलक के नीचे उतरता होगा जो एक मासूम की इज़्जत तार-तार करके खून करने कर देने के बाद गुनहगार को बचाने के बदले मिली हो। क्यूँ ऐसी औरते विद्रोह नहीं करती क्या प्रताड़ित की गई लड़की उनकी खुद की नहीं इसलिए।
या तो बलात्कार की घटना को सियासती रंग दे दिया जाता है या केस को दबाने की कोशिश की जाती है। 21 सदी की महिलाओं को सब आज़ाद बोलते है। कहाँ है आज़ादी ? क्या रात के दो बजे कोई अकेली लड़की सड़क पर बिना डर और संकोच के बिंदास घूम सकती है ? बद से बदतर हालात होते जा रहे है। आख़िर कब तक बेटीयाँ कुत्तों के हाथों ज़लिल होती रहेंगी। कहीं बाहर गई हुई बेटी अगर आधा घंटा भी देर से लौटती है तो माँ-बाप की डर और चिंता के मारे हालत खराब होती है। कब माँ बाप अपनी बेटीयों को सुरक्षित देखकर राहत की साँस लेंगे। जब-जब ऐसे हादसे होते है तब मन आहत होता है और खून खौल उठता है की चंद पलों की आग बुझाने की ख़ातिर किसी मासूम की ज़िंदगी बर्बाद करते दिल नहीं दहलता ज़ालिमों का। कब अंत होगा वहशीयत का हर माँ-बाप से हाथ जोड़कर बिनती है अपने बेटों को दूसरों की बहन बेटीयों की इज़्जत करें ऐसे संस्कार देकर समाज में बेटीयाँ बिना डरे सुरक्षित सी घूम फिर सकें उतनी आज़ादी दें।
(भावना ठाकर, बेंगुलूरु)#भावु
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
Bahut achha lekh
Please Login or Create a free account to comment.