(लघुकथा) "निवाला"
आज शांति की झोंपड़ी में मातम छाया हुआ था। कोरोना की महामारी ने शांति के पति लाखन की जान ले ली थी। घर में एक ही कमाने वाला था। जहाँ-तहाँ मज़दूरी करके जो मिलता था उसमें से पति पत्नी और दो बच्चों की चार लोगों की दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो जाता था। पति के गुज़रते ही शांति टूट गई, अपाहिज बेटा और जवान बेटी को लेकर कहाँ जाऊँगी ये सोच-सोचकर शांति सिहर उठती थी। अब तो लाॅक डाउन भी उठ गया था तो सरकार की और से जो खाना मिलता था वो भी बंद हो गया था। कोरोना के चलते अभी कहीं काम भी शुरू नहीं हुए मज़दूरी करने भी कहाँ जाऊँ। क्या करूँ भीख मांगूँ। जैसे-तैसे एक हफ़्ता गुज़र गया की शांति की तबियत भी खराब होने लगी उसे सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया। अब खुद की और अपाहिज भाई की ज़िम्मेदारी 18 साल की उमा पर आ गई। कितने घरों की ख़ाक़ छानी की कोई घर काम के लिए रख लें पर कोरोना की वजह से सब ने दरवाज़े बंद कर दिए। उमा की आँखों में आँसू आ गए। छोटे भाई को भूखा तड़पता देखकर। कुछ सूझ नहीं रहा क्या करें एक बार खुदखुशी का भी ख़याल आया पर बाद में भाई का कौन इस ख़याल ने रोक, लिया। एसे में उमा को याद आया कुछ समय पहले उमा कई बार अपने बापू एक जगह जहाँ काम करते थे वहाँ खाना देने जाती थी। वहाँ का मुकादम उमा को कई बार लालच भरी नज़रों से देखता था, कई बार हाथ लगाकर छेड़छाड़ भी कर लिया करता था। पर कहीं अपने बापू की नौकरी ना चली जाए ये सोचकर उमा चुप रहती थी। पर हर तरफ़ से हारी उमा एक ठोस निर्णय के साथ मुकादम के घर गई। मुकादम शराब की बोतल खोलकर बैठा था उमा को देखते ही उसकी आँखों में वासना के साँप लोटने लगे। उमा ने एक झटके से सीने से दुपट्टा हटाया और बोली बनवारी ले आज मैं सामने से तेरे पास आई हूँ, अपने तन की आग के बदले हमार पेट की आग बुझा, अगर ज़िंदगी यही चाहती है तो यही सही। ज़िंदगी की कसौटी से हारी उमा ने आज भगवान की तस्वीर को उल्टा कर दिया और आँखों में अंगारे भरकर गुरुर सभर नज़र करते कहा आज से मेरा भगवान बनवारी है, और अपने प्यारे भाई को अपनी ज़िंदगी की पहली कमाई से निवाला खिलाते उमा की आँखें तड़प कर नम हो चली।
(भावना ठाकर, बेंगुलूरु)#भावु
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
No comments yet.
Be the first to express what you feel 🥰.
Please Login or Create a free account to comment.