"मेरा साहित्यिक सफ़र"
मुझे लिखने का शौक़ तो सालों से था पर जब जिम्मेदारियों से मुक्त हो गई तब गंभीरता से लिखना शुरू किया, फिर पीछे मूड़ कर नहीं देखा, आज लेखन मेरी पहचान है। मैं भावों का प्रतिनिधित्व करती हूँ सामाजिक मुद्दों पर कलम चलाकर, हर विषय पर बेबाक लिखती हूँ। अपनी कल्पनाओं को उड़ान देकर वक्त, जगह, प्रकृति, समाज और लोगों की मानसिकता से लेकर समाज में हो रही हर गतिविधियों के बारे में लिखा। मेरा मानना है की लिखना भी एक तरह की समाज सेवा है। हमारे लिखे चार शब्द भी किसीके विचार बदल सकते है, या हमारे लेखन से समाज में क्रान्ति आ सकती है तो लिखना सफ़ल होगा।
जब मैंने लिखना शुरू किया तब घर के सारे सदस्यों का पूरा सहयोग था पर परिवार में कुछ खिटपिटीयों ने विरोध भी किया। और लिखने के मेरे बेख़ौफ़ अंदाज़ पर विवाद भी हुए पर एक लेखक को डर कर या हार कर पीछे हटना शोभा नहीं देता ये मेरे निजी ख़यालात है। मेरी कलम मरते दम तक नंगी तलवार सी चलेगी। पिछले पाँच सालों में 200 से ज़्यादा आर्टिकल्स 250 कहानियाँ और 2000 कविता और गज़ल लिख दिए।
जो कहते है स्त्री की बुद्धि पैरों की पानी में होती है उनके लिए मैं मुँह तोड़ जवाब हूँ। पर हमारे समाज की महिलाओं के प्रति एक मानसिकता रही है की कुछ काम महिलाओं को शोभा नहीं देता, या कुछ विषय पर महिलाओं के लिखने पर भूचाल आ जाता है, मेरे साथ भी हुआ। जब भी किसी ग्रुप में अपना लिखा कुछ पोस्ट करती मेरी मुखर शैली पर अचूक विवाद होता। मेरा मानना है एक लेखक को समाज के हर मुद्दों को लिखकर उजागर करना चाहिए, चाहे बेमेल की शादी हो, सेक्स हो, देह विक्रय हो या भ्रष्टाचार क्यूँकि कलम एक ऐसी ताकत है जो हवा का रुख़ बदल सकती है और सिंहासन तक हिला सकती है।
भले आज महिलाएं हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हो पर मैंने देखा है हमारे समाज में महिला लेखिकाओं को बहुत सारी विडम्बनाओं का सामना करना पड़ता है। मुझे भी करना पड़ा। इतिहास गवाह है अमृता प्रितम हो, परवीन शाकिर हो, कृष्णा सोबती हो या विदेशी लेखिका वर्जीनिया वुल्फ हो जिसने भी लेखन के ज़रिए आवाज़ उठानी चाही समाज ने उसे दबाना चाहा। औरतों को आक्रोश उड़ेलने का जैसे कोई हक ही नहीं।
पर मैं उन लेखिकाओं में से हूँ जो समझती है की अगर हम एक लेखक है तो समाज के हर मुद्दे को बेबाकी से उजागर करने में कभी कतराना या डरना नहीं चाहिए। जब से लिखना शुरू किया है अपनी कलम को बेख़ौफ़ और बेबाक रखा है।
खास कर पुरुष लेखकों के बीच खुद को सक्षम रुप से प्रस्थापित करना मुश्किल होता है। वो इसलिए कि हमारा समाज आज भी स्त्रियों के प्रति उतनी उदारवादी निति नहीं रखता। महिलाओं के लिए एक सीमा तय कर दी जाती है। जैसे मेरे राजकारण पर, वेश्यावृत्ति पर और सेक्स जैसे विषयों पर लिखे लेखों पर बहुत बार ऊँगलियां उठती है। और कुछ शब्दों के चयन पर आपत्ति जताई जाती है, संपादक बोलते है मैम कुछ शब्दों को हटाकर वापस लिखकर भेजिए पर मैं साफ़ मना कर देती हूँ की जब समाज में ये सब खुलेआम होता है उसे तो हम बदल नहीं सकते, कम से कम लिखकर तो विरोध जता सकते है। अगर पब्लिश करना है तो जैसा मैंने लिखा है वैसा ही कीजिए वरना रहने दीजिए।
मैं नहीं डरती ये सोचकर की मेरा इस विषय पर लिखा अगर घरवाले या मेरे पति पढ़ेंगे तो क्या सोचेंगे। इसी वजह से बहुत सी लेखिकाएं मुखर होने से डरती है, पर जो मेरे जैसी आज़ाद ख़यालों वाली मुखर होकर लिखती है वो समाज की नाराज़गी का शिकार होते बहुत कुछ सहती भी है।
एक मुद्दा ये भी है की शृंगार रस पर मानों पुरुष लेखक का ही अधिकार हो। मेरे लिखे शृंगार रस पर मर्दों का एक समूह कमेन्ट देने से कतराता है। चुम्बन शब्द में जैसे करंट छिपा हो, उन्नत उरोज लिखना जैसे पाप हो या प्रेम की चरम का वर्णन जैसे निम्न कक्षा का लेखन हो गया। खास कर ये सब जब एक महिला लिखती है तो लोगों की आँखें क्यूँ निकल आती है? ये मुद्दा भी मैं तो कहूँगी स्त्री विमर्श का हिस्सा ही माना जाए। मैं जब शृंगार रस लिखती हूँ तो विषय को चरम तक ले जाती हूँ। मेरा मानना है जब माँ सरस्वती का वरदान किसी पर होता है तभी कोई चार पंक्तियाँ लिख पाता है, तो महिला लेखिकाओं का पूरा सम्मान होना चाहिए। माना कि लज्जा स्त्री का गहना होता है पर उस गहने को घुटन बना लेना गलत है। मैंने उस घुटन की दहलीज़ से पैर निकाल लिए है। मैं ये कहूँगी कि अगर मैं एक सच्ची लेखक हूँ तो शर्म, संकोच और डर को त्याग कर हर विषय का शब्दों से शृंगार करना चाहिए। और तन में जब तक है जान ऐसे ही बिंदास अंदाज़ में लिखती रहूँगी। मुखर लेखन और हर मुद्दे को जड़ से कुरेदकर सच उजागर करके समाज के समक्ष परोसना हर लेखक का धर्म होता है।
(भावना ठाकर, बेंगुलूरु)#भावु
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
bahut khub
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