असंख्य बोझ लदे
संसार शतांग की सारथी
या ज़िंदगी के रंगमंच के
एक अहम किरदार को
जो रोटी के संग शेकती है
अपने अधूरे अरमानों को
क्या तुम जानते हो
आँखों में इंतजार लिए
अपने अस्तित्व को तलाशती
यशस्वी फिर भी
आधे अक्षत सी
आपकी ही सहगामिनी को
कहो तुम कितना जानते हो
आगाज़ भी वही उत्कर्ष भी
फिर भी सुरपति सी लड़ती
खंगालती है हर रिश्ते की
अंदरूनी अलमारी
सत्तारूढ़ के पैरों पर पड़ी
नींद की मुन्तज़िर
पर्याय ढूँढती सुख का
प्रतिक्षित प्यार की
वामा की भूखी व्यंजनाओं को
क्या पहचानते हो तुम
उपर देखते गगन में
सप्तर्षि की चाल को देखते
अपने सितारे खोजती
दयिरा की आँखों में झाँको कभी
एक आस का दरिया बसता है
चुनकर देखो इनके
टूटे सपनों के कतरे
सहज कर रख लो अपने
उर आँगन में बो कर
एक दिन अमलतास खिलेगा
एक अबला की उम्मीदों का
पर नहीं जानते तुम उनकी
आंशिक अभिलाषा को
एक वितरागी हृदय की
अधजली अन्वेषणा को
पूरा कर दो
पूर्णता की प्यास लिए
अपने एकांत में जूझती है
क्या कभी जान पाओगे
मैथुनी क्रिया के वक्त
वामा कौनसी गली घूमती है
आपकी आगोश में पड़ी
काया का दिमाग
शक्ति और सामर्थ्य का जो
भंडार है अपने वजूद की
तलाश में भटकता रहता है
अर्धांगनी के एकल दुकल
अंग को जानने वालों
नखशिख समझो वल्लभा को
आपके बीज को रक्षता नीड़ है
नहीं कोई जूती पैरों की
सर पर सजाकर रखिए
ताज सी, जगह उसकी वहीं है।
भावना ठाकर 'भावु' बेंगलोर
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