मुद्दतें हो गई हिसाब ही नहीं किया तेरा ए विमर्श तुझे झुकना होगा, मेरे हौसलों ने बगावत की है,
घोर घटनाओं की आदी मेरी रीढ़ ने
सर उठाकर आसमान छूने की तानी है।
काटता, कुचलता आगे बढ़ता रहा वो
मैं सारहीन, सत्वहीन सी ढूँढती रही जिसे उस आत्मसम्मान ने बदले की मशाल जलाई है।
सदियों तक सजती रही पन्नों पर बेफ़ाम मेरी कमज़ोर मानसिकता, अब सरफ़िरे जज़्बातों ने विद्रोह की लौ जलाई है।
निकली हूँ तोड़कर जंजीर पड़ी थी जो पैरों में, दहलीज़ लाँघकर हवाओं के ख़िलाफ़ बहना सीख चुकी हूँ।
ज़माने की फैलाई जाल के भीतर बंदी बने सिमटी थी, उद्घोष किया है बुलंद इरादों ने गले हुए वजूद को उपर उठाना ठान चुकी हूँ।
क्षीण सरिता सी सूख गई थी अपनी ही धार से फिसलते, छीनना जान चुकी हूँ हर बंदीश को तोड़कर मौरूसी अधिकार जो पाना है, मैं इक्कीसवीं सदी की नारी हूँ।
मेरी इस गूँज को मुट्ठियों में भरकर कोई मोतियों सी उड़ा दो, पहुँचा दो प्रताड़ना की क्षितिज पर नतमस्तक खड़ी हर महिला तक मैं अपना स्वाभिमान बांटना चाहती हूँ, अपना हौसला उनके नाम करना चाहती हूँ।
#भावु
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