"एडमिन की परिभाषा कड़वी है पर सच्ची है"
एडमिन यानी व्यवस्थापक, एक अच्छा व्यवस्थापक अपने समूह का पसंदीदा व्यक्तित्व होता है एक आदर्श होता है। आजकल फेसबुक, वोटसएप पर ग्रुप बनाकर चलाने वाले एडमिन खुद को कोई राजा महाराजा या महारानी समझने लगते है। इतनी अकड़ तो किसी कोर्पोरेट जगत में मैनेजर की पोस्ट पर बैठा इंसान भी नहीं दिखाता, नांहि प्रधानमंत्री। एडमिन ये भूल जाते है की ऑफ़िस हो या ग्रुप उनकी ये दुकान कर्मचारी और मेम्बर्स से चलती है। एक अच्छा एडमिन वो है जो सबको साथ लेकर चलता है। मेम्बर्स को एडमिन की जरूरत नहीं होती बल्कि ग्रुप को सुचारु रुप से चलाने के लिए एडमिन को अच्छे मेम्बर्स की जरूरत होती है।
कोई-कोई एडमिन तो इतनी तीखी, बेरुख़ी भरी धमकी की भाषा में मेम्बर्स के साथ बर्ताव करते है मानों मेम्बर्स कोई तुच्छ प्राणी हो या प्यून हो। कौन टिकेगा वहाँ ? ज़ाहिर सी बात है इंसान को जहाँ प्यार, अपनापन और सम्मान मिलेगा उस जगह को छोड़ कर कभी नहीं जाएगा। और जहाँ सदस्यों में भेदभाव रहेगा और एडमिन शिक्षक सा बर्ताव करेगा वहाँ से आहिस्ता-आहिस्ता सारे कट लेंगे। तू नहीं और सही ग्रुपों की कमी नहीं। अगर मेम्बर्स से गलती होती है तो समझाने के दो तरीके होते है प्यार और इज्जत से भी समझाया जाता है। पहले चेतावनी दो समझा बूझाकर फिर धमकी दो। और भाषा में मिठास होनी चाहिए की आप अपनी बात बोल भी दो और सामने वाले को बुरा भी ना लगे।
दूसरी बात कई साहित्यिक ग्रुपों में मेम्बर्स को रचनाएँ छपवाने के बदले सदस्यता फीस के नाम पर पैसे वसूले जाते है। या तो हर महीने कोई ना कोई विषय देकर साझा संग्रह के नाम पर सिर्फ़ दो या तीन पेज के 700 से लेकर 1500 रुपये तक की मांग करते है। पहली बात तो ये की मेहनत लेखक करे, दिमाग लेखक खपाए और उस बात के पैसे भी दे। अगर अपनी रचनाएँ छपवानी होगी तो खुद की एकल अपनी मर्ज़ी से छपवाएंगे। और कई जगह पर जो लोग 500/1000 देकर साझा संकलन में साझेदारी करते है उनकी फालतू जैसी रचनाएँ भी उस ग्रुप की पत्रिका में छाप देते है, और अच्छे-अच्छे रचनाकारों की रचनाएं पड़ी रहती है। एक लेखक रचना छपवाने के लिए कितने पैसें देता रहेगा, और कितनी साझा किताबें जमा करता रहेगा। कुल मिलाकर साहित्यिक जगत आज पब्लिशर्स के लिए व्यापार बन गया है। किसीको अच्छी रचनाओं और अच्छे लेखन से नहीं जो पैसे दे उसकी रचनाओं से मतलब होता है। माना कोई किसीके लिए मुफ़्त में कुछ नहीं करता सबको अपना घर चलाना होता है पर साहित्य का खून करके सिर्फ़ पैसों की ख़ातिर कुछ अच्छे लेखकों के साथ नाइन्साफ़ी जायज़ नहीं। हर कोई अच्छा लिखने वाला इतनी फीस देने के लिए सक्षम नहीं होता। पहले के ज़माने में लेखक को मानदेय राशि मिलती थी आज देनी पड़ रही है।
ऐसे ग्रुपों में भी कोई-कोई एडमिन तो ग्रुप पर खुद का आधिपत्य समझते है और किसीको टिकने ही नहीं देते। जैसे खुद कोई नेता हो और दूसरा आकर मानों उसकी कुर्सी छीन लेगा। अरे भै महज़ ग्रुप है इतनी खिंचातानी क्यूँ ? एक की जगह दो और दो की जगह तीन मिलकर काम करोगे तो और अच्छे से चलेगा। कोई कोई एडमिन अपने अच्छे व्यवहार से सबका दिल जीत लेता है तो कुछ इंसान की फ़ितरत कभी नहीं बदलती। ना होंठों पर हंसी होती है ना जुबाँ पर सरस्वती और खुद को लाट साहब समझते एडमिन तो बन बैठते है पर किसीका आदर्श नहीं बन पाते।
(भावना ठाकर,बेंगुलूरु)#भावु
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