उनकी आज़ादी के लिए सदियों पहले प्रारंभ हुए यज्ञ में शब्दाहुति क्या दूँ,
निरंतर धूनी जलती हो जिसकी रीढ़ पसीजते उम्र की वेदी पर बलि चढ़ते।
विमर्श के समिध कब तक जलाऊँ आग के बदले जब धुआँ ही उठता हो।
भर जाती है किरकिरी आँखों में कहानी नारी की सुनते ही।
अँजुरी भर भरकर अश्कों का घी बहाया हकदार नहीं कहलाई फिर भी मीठा फल चखने की,
और कितनी बलि लेगा ये महायज्ञ कमज़ोर कहलाने वाली कुछ वामा की।
उठे कोई आग ऐसी दावानल सी ख़ाक़ कर दे जो आँखों से उठती नारी के प्रति नफ़रत को,
बहे कोई आबशार मीठा जो धो डाले दमन से उठे दाग को।
कहने को बहुत कुछ बदला है वक्त के चलते, बस नहीं बदली कुछ नारियों की किस्मत जिनकी लकीरों में मर्दाना अहं की बेड़ी पड़ी है।
मत इंतज़ार करो उम्मीद की लौ जलाए उस आहटहीन पथ पर बैठे जिस पर सन्नाटे की जंजीर पड़ी है,
दूर है वो भोर उजली जिसकी आस में कुछ स्त्रियों की टकटकी लगी है।
#भावु
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