"लड़के भी घर छोड़ते है"
लिखने वालों ने कितना कुछ है लिखा
औरत, बेटी, अहसास, प्यार
कायनात के हर जर्रे पर बेसूमार लिखा है, क्यूँ सबने एक शख्सियत को अनदेखा किया ? लड़के को, एक मासूम लड़के से मर्द बनने तक का सफ़र बहुत कठिन होता है। एक मर्द की ज़िंदगी को शब्दों में ढ़ालना आसान नहीं।
जी हाँ, अगर स्त्री धरती का आधार है तो
मर्द उस आधार की नींव है। जो टीवी या फिल्मों में देखते हैं वो छवि हरगिज़ नहीं पुरुष की, किशोरावस्था से ही खुद को तराशता है ज़िन्दगी के हर एक संघर्ष और चुनौतियों का सामना करने के लिए।
पढ़ लिखकर खुद को सक्षम करने में
मानसिक तनाव जो भुगतता है वो असहनीय होता है, वैसे अपने आप में एक संपूर्ण होता है पर ज़िंदगी की कुछ पहेलियाँ कुछ मासूम लड़के को पत्थर बना देती है।
हर जिम्मेदारी को बखूबी निभाता
ज़िन्दगी की चुनौतियों को सीने पे झेलता, अपना कर्तव्य निभाए जाता है पूरी ईमानदारी से हिम्मत ओर आत्मविश्वास के साथ। ज़िंदगी की उलझनों से घिरे लड़के के
भीतरी घमासान को नज़दीक से छूओगे तो हिल जाओगे। पूरे परिवार की अस्क्यामत को खुद के कँधों पर लादे देता है एक सुख संपन्न भरा जीवन सबको देने के लिए खुद क्या कुछ नहीं झेलता। अपने शौक़ को भूलकर पूरा किये जाता है नि:स्वार्थ परिवार के लिए काम। खुद चाहे कितना टूटा हो भीतर से पग-पग सबको हौसला देता। हाँ एक मर्द ही है पूरी सृष्टि में सहनशीलता का प्रतीक है। सलाम है धैर्यवान, हिम्मतवान, शौर्यवान लड़कों के जज़बे को..!
ऐसा ही एक हिम्मतवान भरपूर ज़िंदगी जीने वाला अभिराज महज़ चौदह साल का बिंदास लड़का, दो भाई एक बहन में सबसे छोटा पापा का राजदुलारा, माँ का लाड़ला, बहन की जान, ना कोई चिंता ना कोई जिम्मेदारी बस खेलना खाना दोस्तों के साथ मजे़ उड़ाना,
पढ़ने में ठीकठाक पर हाँ सबसे करीब माँ के साथ था माँ की कोई बात नहीं टालता हो सके उतनी मदद करता। क्रिकेट के पीछे पागल था पूरा दिन बेट बोल लेकर घूमता जो भी दोस्त मिलें बोल पकड़ा देता खुद बेटिंग करता। मस्त जिंदगी कट रही थी शांत सुबह ओर सुकून भरी रातें।
पापा शिक्षक थे, बड़ा भाई अभय सिर्फ़ दो साल बड़ा पर छोटे को एक वडील बंधु की तरह रखता बहन सबसे बड़ी थी तो छोटे को लाड़ लड़ाती रहती। कुल मिलाकर घर में सबका लाड़ला अभिराज था..! पर एक दिन आसान ज़िंदगी ने एैसा मोड़ लिया की अभिराज को अचानक बड़ा बना दिया।
कुछ समय से अभि के पापा की तबियत बिगड़ रही थी। कितने डॉक्टरों को दिखाया, रिपोर्ट करवाएँ, दवाई खाई पर तबियत बिगड़ती ही गई, अंत में मुंबई जाकर कुछ टेस्ट करवाए तो पता चला गले का लास्ट स्टेज का केंसर है।
घर में सबके उपर पहाड़ गिरा, तीनों बच्चे पढ़ रहे थे एक तरफ़ बीमारी के खर्चे, एक तरफ़ घर के फिर भी अभि की माँ ने कोई कसर नहीं छोड़ी। अपने सारे गहने बेचकर डॉक्टरों की जेब भरती रही फिर भी अभिराज के पापा को नहीं बचा पाई।
अचानक से आए बवंडर में अभि ने अपनी मासूमियत खो दी। हँसता-खेलता बच्चा चुपचाप सा रहने लगा। ना खेलने का मन करता न खाने का। एक खामोश तूफ़ान पल रहा था उसके ज़हन में..!
पापा का सपना था अभि को इन्जीनियर बनाने का पर अभि को अब पढ़ना भी अच्छा नहीं लगता था। घर के हालात तंग होते चले गए, अभि की माँ ने बाहर जाकर काम करना शुरु किया। रिश्तेदारों ने मुँह फेर लिया, जब अच्छे दिन थे तब जो अपने कहलाते थे समय के साथ सब दूर होते चले..!
अभय ओर अंजली पढ़ने में लग गए पर अभि हर बात से कतराता रहा स्कूल से शिकायतें आने लगी। पढ़ने में कमज़ोर होता गया। बस हर पल एक ही ख़याल सताता सबके पापा है मेरे पापा को ही भगवान ने क्यूँ छीन लिया। अंदर ही अंदर घूटता रहता था..!
एक दिन अभि की माँ बहुत बिमार हो गई। डॉक्टर ने बाहर काम करने जाने से मना कर दिया। अभय १२वी कक्षा में था ओर अभिराज १०वी दोनों के बोर्ड का साल था पर घर के हालात बिगड़ते जा रहे थे। अब अचानक से अभि में परिवर्तन आ गया। उसने ठान लिया कुछ भी करके पापा का सपना पूरा करुँगा।
पापा तो चले गए अब माँ को नहीं खो सकता ओर जी जान से जुट गया पढ़ाई करने मानो वो अभि रहा ही नहीं।
इधर अभय ने पढ़ाई के साथ प्राइवेट कंपनी में पार्टटाइम जॅाब ले ली ताकि घर में आर्थिक मदद हो, शिक्षक के पेन्शन में जैसे तैसे चल जाता था ।दोनों भाइयों ने अच्छे मार्क्स से बोर्ड में सफ़लता पाई ओर मेहनत ओर लगन से अभि १२वी में भी अच्छे मार्कस से पास हो गया तो अभिराज की मम्मी ओर भाई ने अभि को आगे पढ़ने के लिए बाहर भेजने का सोचा,
क्यूँकि जितना उसका दिमाग था उतनी मेहनत नहीं थी। दोस्तों के साथ मस्ती में ज़्यादा समय बिताता था ओर थोड़ा जिम्मेदार भी बनेगा ये सोचकर अभि को अहमदाबाद की एक होस्टेल में दाख़िला करवा दिया..!
घर और माँ से कभी दूर नहीं गया था।
अजनबी शहर, अजनबी दोस्त, कुछ ढंग का नहीं, ना कभी कोई काम किया था, ना कुछ आता था, माँ का दिल भी रो रहा था पर बेटे के भविष्य के लिए दिल पर पत्थर रख लिया..!
कभी किसी को अपने रुम में नहीं आने देता था वो लड़का आज चार लड़कों के साथ एडजस्ट कर रहा था। खाने में सौ नख़रे करने वाला कुछ भी खा लेता था, अपने बिस्तर के बिना कहीं ओर सोने की आदत नहीं थी पर आज वो लड़का कहीं भी सो जाता है..!
माँ का फोन आते ही माँ सब ठीक है बोलना रट लिया था, क्रिकेट भी छूट गया, सारे शौक़ भी मर गए जब सब कुछ पीछे छूट गया तो क्या करें गिला।
हर कुछ दिन कोई न कोई नई चीज़, कपड़े, शूज़, क्रिकेट का सामान माँगने वाला सामने से पूछने पर भी नहीं मेरे पास सबकुछ है कुछ नहीं चाहिए कैसे आसानी से बोल जाता है।
बीमार भी होता है तो अकेले झेलता है। किसे कहे क्या कहे, माँ खुद इतनी परेशान होती है, सीख रहा है सबकुछ एक बिन बाप के कैसे रहा जाता है।
माँ, बहन, भाई, घर परिवार, दोस्त, मोहल्ला, जाने पहचानने रस्ते सबकुछ पीछे छूट गया था, हाँ जब कभी सब याद आते थे तो पलकें नम भी कर लेता था..!
बस नहीं भूला पा रहा था तो पापा की कमी आज भी उपर वाले से एक ही फ़रियाद है सबके पापा है मेरे क्यूँ नहीं, पर जैसे-जैसे बड़ा होता रहा अभि ने ठान लिया था अब जब यही ज़िंदगी है तो हँसकर सबकुछ सहकर अपने तरीके से गुज़ारुँगा। अब तो पापा का सपना पूरा करने जा रहा था। इन्जीनियरिंग कॅालेज में दाखिला भी ले लिया। दिमाग तो था ही अब मेहनत भी करने लगा था। पर हर जगह कोई न कोई बुराई भी तो रहती है।
कुछ एैसे भी दोस्त थे जिनकी संगत में कभी बियर पार्टी भी हो जाती थी, तो कभी सिगरेट के कश भी लगा लेता ,लड़कियों को भी पटा लेता था।
कुल मिलाकर अभिराज ज़िंदगी के हर रंग को जी रहा था। माँ बार-बार पूछती रहती, बेटे पैसे भेजूँ कुछ चाहिए पर अभि जानता था, बहन की शादी भी करनी है और घर के भी खर्चे थे, तो ज़रुरत होने पर भी मना करता था।
एक दोस्त के पापा को ऑफिस के पेपरवर्क के लिए एक लड़के की जरुरत थी। अभि बहुत होशियार था तो दोस्त से बात करके पार्ट टाईम जाॅब ले ली, दिन में पढ़ाई करता और रात में काम। अब खुद के खर्चे खुद उठाने लगा था, बस कुछ भी करके अब माँ ओर भाई के उपर बोझ नहीं बनना था।
ऐसे में इन्जीनियरिंग की पढ़ाई अच्छे रिज़ल्ट से पास कर ली। मन तो था की एम. बी. ए. करता पर घर के हालत ओर जिम्मेदारी के चलते अब जल्दी से जॅाब ढूँढनी थी ताकि माँ को आराम दे सके।
ओर बहुत ही जल्दी पूने की एक कंपनी में जाॅब मिल भी गई। आज पापा को बहुत मिस कर रहा था आँखें भर आई पापा होते तो कितने खुश होते भगवान सबके पापा है मेरे ही पापा क्यूँ नहीं है..! एक दिन का बिंदास अभि अब सबकुछ सीख गया था।
कपड़े भी धो लेता है, झाडू भी लगा लेता है, खाना भी बना लेता है, तो कभी थकाहारा भूखा भी सो जाता है।
कहाँ नसीब में अब माँ के हाथ का खाना जिंदगी के थपेड़ों ने बहुत कुछ सीखा दिया था घर परिवार की अहमियत पैसों की कद्र खुद का खयाल रखना..!
खुद के दायरे में बँधा अभि घर से अजनबी होता जा रहा है बहन की शादी भी अच्छे घर में कर दी थी अभय की भी शादी कर दी माँ ने ताकि घर संभालने वाली आ जाए,
माँ बारबार बोलती है अभि अब तू भी शादी कर ले तो मेरी जिम्मेदारी पूरी हो,
पर ना अभिराज को ज़िंदगी की हर एक चुनौतियों का बदला लेना है, जो जो खोया है वो सब पाना है बचपन तो नहीं लौट सकता पर अब बड़ा आदमी बनना है,
आज अपनी मेहनत लगन ओर कुनेह से बड़ी कंपनी में बड़ी पोस्ट पर है।
पर ये मुकाम नहीं चाहिये...
चाहिये तो खुद का बिजनेस या खुद की कंपनी चाहे कितनी मेहनत लगे हासिल करना है बस..!
आज अकेले रहते सालों बीत गये एक आदत ने उसे भीड़ से अन्जान कर दिया है, कभी घर भी जाता है तो चार दिन में उब जाता है एक ही धून सवार है बस कुछ कर दिखाना है,
सिर्फ़ बेटीयाँ ही घर छोड़कर नहीं जाती कुछ बेटे भी मजबूर होते है घर छोड़ने पर, आसान नहीं उस बेटों की ज़िंदगी जिसके पिता बचपन में ही छोड़कर चले जाते हैं।
एक जिम्मेदारी का बोझ कंधों पर उठाए खुद के लिए खुद ही रास्ता तय करना होता है। हाँ, लड़कों की ज़िंदगी आसान नहीं होती साहब। पूरे परिवार की मजबूत नींव रखने खुद को गाड़ना होता है, ज़िंदगी की चुनौतियों की ज़मीन में तब जाके महल बनता है जिसमें पूरा परिवार सुख चैन से रहता है।
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(भावना ठाकर)
बेंगलोर
कर्नाटक
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