दास्ताँ नाकामी की

दास्ताँ नाकामी की

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Bhavna Thaker
Bhavna Thaker 19 Nov, 2020 | 1 min read
Prem Bajaj

हसरतों को चाहत खुशियों की पर नाकामी का ही साथ मिला 

उम्मीदों को लिखा कभी हमनें तो कभी हर हर्फ़ मिटा दिया।


होते होंगे कोई वक्त के लाडले कहानीयाँ जिनकी मुकम्मल है 

हम तो सदा अनमने ही रहे

दस्तक देते थक गए वक्त की दहलीज़ पर दुविधाओं के ही दृग खुले, खुले ना कभी किवाड़ किस्मत के।


कैसे नापे हम ख़्वाबों के पहर रोशन कोई ना राह दिखीं 

व्यथाओं की विडंबना क्या कहें चिल्लाते बुलाया वक्त को 

अनसुनी करते बह गया अधूरी तमन्ना से क्या ज़िंदगी सजे।


ऊबी हुई शाम और बेचैन राते कद कैसे ऊंचा करूँ 

वक्त के तन पर ठहराव का पहरन नहीं फिसलना वक्त की फ़ितरत रही 

रोशनी की जुस्तजू में तम की गर्ता में सपने छंटते रहे।


गया वक्त लौटकर आता नहीं तो मलाल ना सवाल है नाकामियों से हम रुबरू हुए अधूरेपन की गलियों में अब क्या नसीब के नामों निशान ढूँढे,

अब तो वक्त की नज़र अंदाज़ी के हम आदी हो चुके है।

#भावु।

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