"देह विक्रय की पीड़"
मैं तरल हूँ, मैं स्निग्ध हूँ, मैं कठोर हूँ तो कोमल भी हूँ, पर ज़माने की नज़रों में मुफ़लिसी का मोहरा या लूटी जाती है जो आसमान से गिरी वो कटी पतंग सी वासना सभर हाथों से रोज़ रात को लूटी जाती हूँ...
किंमत ठहरी कौड़ी की दल्लो के हाथों बेची जाती हूँ, नापी जाती हूँ नज़रों से, मोली जाती हूँ गालियों में, जिसकी जितनी औकात उस पलड़े में तोली जाती हूँ...
मर्दानगी की आड़ में खुलती है परतें रात की रंगीनियों में उधड़ कर मेरी त्वचा के भीतर हवस की आग में सराबोर नौंच कर शेकी जाती हूँ..
गंध भरते बदबूदार नासिका में शराब की बोतल सी खोली जाती हूँ, वहशीपन की हरारतों से उतरते पल्लू को सहजते जलते हाथों में रौंदी जाती हूँ...
पीर नहीं पहचानता कोई बाज़ारू जो ठहरी, ना स्पंदन दिल के छूते है ना सौहार्द भाव जगते है, भोगने वालों के तन के नीचे दबकर बेमन से मसली जाती हूँ...
तन के लालायित मन तक भला कौन पहुँचे सपनो की सेज मेरी फूलदल से कौन भरे हीना सजे हाथों की चाह लिए छटपटाते वीर्य की बूँदों से लदी जाती हूँ ...
तड़पते बूँद दो छंट जाती है पलकों से तब पापी पेट की आग को बुझाने खारा समुन्दर भी खुशी-खुशी नम आँखों से पी जाती हूँ..
स्याह रात के ख़ौफ़नाक मंज़र से सुबकती है साँसे, उजालों को तरसती मैं भीतर ही भीतर दर्द के मारे दुबक जाती हूँ...
दर्द के गाढ़े तार में पिरोकर सन्नाटे बुनती हूँ मजबूत ताने का सिरा ढूँढती एक भी रंग ज़िंदगी में मेरी पसंद का नहीं सोचकर दर्द निगल जाती हूँ ...
कैसी होती होगी सम्मानित सी ज़िंदगी, कैसा होता होगा ससुराल, सपने में भी नहीं देखा ऐसा सुहाना मैंने संसार, बहारों की आस लिए पतझड़ की आदी होती जाती हूँ ...
कल्पनाओं की पालकी में जूस्तजु लिए जीती हूँ कहाँ मुझे ख़्वाब पालने का हक साहब, कोठे वाली या रंडी जैसी हल्की भाषाओं से नवाज़ी जाती हूँ।
(भावना ठाकर,बेंगुलूरु) #भावु
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