"अमन की आस"
@भावना ठाकर
हर घटना के गवाह चाँद बता कौनसी घटना अति दु:खदाई है। आतंकित हूँ छल के शोर से जुगनूओं सी विद्रोह की लौ मुट्ठियों में दबाएं आख़िर कब तक जीएँ।
सहमे-सहमे चुप्पी में जकड़े जाते है
हम कायरता के पीछे छुपे। चाहते है अपनी हथेलियों की ज़मीन पर कुछ सुहाने पल अमन के जो हो फूलदल के निचोड़ इत्र से।
ये वक्त का बे-नूर मंज़र तू ले जा आसमान के कोने में कहीं छुपा दे,
वो नशीला धुआँ दे दे जो हुक्के की लज्जत से उठता है बैरागी साधु की नासिका से।
बेजान बारूद के ढेर पर बैठे है फटने की क्षितिज पर ठहरी डूब रही है ज़िंदगी,
वो सुनहरा इतिहास दे दे वापस जो दब गया है स्वार्थ के बदबूदार मलबे में।
वो रोशन धूप अब वर्जित क्यूँ है जो उठती थी देशप्रेमीयों के सीने में,
झेलने की आदत में शामिल होता जा रहा है समाज बदी की आग को बुझा सके इतना हौसला कोई दे दे।
युग को पलटने की बातें लबों तक ही सिमित रही, इस सफ़र को तय करने का आगाज़ तो कोई कर ले, कारवां ना चल पड़े तो कहना।
वक्त के आँगन कभी तो भोर होगी,
तमस के कबीले से निकलती कोई रश्मि अमन की प्रेमिका भी होगी।
कब तक कायनात यूँ लहू-लुहान सी फिरेगी,
अपने गर्भ में खूनी दरिंदों को पालती
धवल बीज की इंसान के मन से मधुपर्क सी बरसात तो होगी।
क्यूँ इश्क नहीं होता अपनेपन से तुझे इंसान, मुखौटे के पीछे दबे एहसास को उतार धागा तो बुनकर देख,
प्रेम को परिभाषित करती कोई चद्दर तैयार होगी।
कोरे आसमान से मन क्यूँ है सबके
क्यूँ भाईचारे की भावना कब्रिस्तान में बदल गई,
नफ़रत की आँधी में बह गए मजमें
मीठे मौसम की जानें कब वापसी होगी।।
सहस्त्र युग बीते शांत जल ओर सदाचार की गंगा देखें, मीठे जल के आबशार सूख गए,
अब तो बह रही है चारों ओर से खून की नदियाँ इसे सूखा दे वो धूप की बारिश जानें कब होगी।
बेंगुलूरु, कर्नाटक
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