मेरे अहसास का सरमाया खोल रही हूँ सुनों ना
ये शिद्दत शायद सदियों तक कम न हो
मैं इंतज़ार करूँगी...
अगले जन्म में भी
बेशक तुमसे मिलना है मुझे, मैं मिलूँगी
इल्म नहीं कब, कहाँ, कैसे मुलाकात होगी।
तुम ढूँढना सुबह की पहली किरण में शायद झिलमिलाती मिल जाऊँ...
आँगन में बोई तुलसी की खुशबू में
या चौपाल के बीच वाले कुएँ की धार पे...
किसी मौसम की पहली छड़ी में ठिठुरती ठंड़ में बहती बयार से पूछना पता मेरा...
कंदराओं की गोद में
हल्की सी धूप मेरे वजूद की पड़ी होगी,
या कत्थई शाम के गुज़रते लम्हों की दास्तान कहते मिलूँगी जमुना के तट पर गिरती ताज की परछाई में।
बंज़र धरा की प्यास सी तुम्हारे इंतज़ार में तड़पते पत्तों पर शबनम बनकर मुस्कुराऊँगी
उठा लेना ऊँगली के पोरों पर और हौले से रख लेना जीभ की सतह पर
मैं तुम्हारे रोम-रोम में उतर जाऊँगी
कुम्हलाती हरसिंगार की कलियों को छूना तुम मैं दिख जाऊँगी।
रात में छत पर खटिया बिछाकर सोना और देखना आसमान की ओर अभिसारिका के बीच में एक छोटी रोशनी का नूर नज़र आए तो समझ जाना तुम
मेरी मौजूदगी महसूस करना
सिसकी कोई सुनाई देगी पहचान लेना तुम और हल्के से आवाज़ देना
मैं दौड़ी चली आऊँगी...
बस तुम्हें ढूँढना होगा मुझे मिलना है मैं मिलूंगी
ना मिलूँ दुन्यवी किसी शै में तो,
खंगालना खुद के भीतर भी वहाँ पर बेशक मिलूँगी
कहाँ ओर कोई ठिकाना मेरा।
(भावना ठाकर, बेंगुलूरु)#भावु
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