कहानी - वक्त की शाख पर ठहरा पल
पच्चीस सालों बाद कालेज के उन अपने अजीज दोस्तों से दोबारा मिलना जिनके साथ में यौवन की दहलीज पर कदम रखते हुए मैंने प्रेम का ककहरा सीखा था....मन को बड़ा रोमांचित कर रहा था. मेरी कार हाईवे पर सौ किलोमीटर की रफ्तार से दौड़ रही थी. सड़क किनारे लगे पेड़ भी मेरी कार से होड़ करते प्रतीत हो रहे थे. जैसे मैं उन्हें पीछे नहीं छोड़ रहा था, बल्कि मेरे साथ- साथ दौड़ कर मेरे मन के भावों को पढ़ने की कोशिश कर रहे थे. और मेरा मन है कि इससे भी कहीं तेज गति से अतीत की ओर दौड़ रहा था.
कालेज का वह अद्भुत समय मानो फिर से चलचित्र की भाॅंति मेरी आँखों के सामने चल रहा था, या मैं फिर से उसी समय को जी रहा था, कहना मुश्किल था. काॅलेज में दाखिला लेते समय ही मैंने ठान लिया था कि मैं केवल यहाँ पढ़ने और कुछ बनने के लिए आया हूँ, न कि मौज- मस्ती के लिए जो छात्र अक्सर करते पाए जाते हैं.वैसे तो मैं प्रेम नामक रोग से अपने आपको सदा ही दूर रखता था, और सदा दूर रहने की भरसक कोशिश भी करता था.पर इश्क़ वो चीज कहाँ जो सोच समझ कर की जाए या उस पर किसी का जोर चला है, जो मेरा चल पाता? बस उस रोज ना जाने क्या हुआ कि, रोज की तरह लाइब्रेरी में पढ़ने बैठा अपनी किताब में किताबी कीड़े की तरह घुसा था कि रेशमी दुपट्टा मेरे सिर को ढ़कते हुए मुझे किताबी दुनिया से बाहर खींच लाया. मैंने सिर उठाकर ऊपर देखा एक सौम्य चेहरा,हंसते हुए दिखाई दे रहे मोतियों से दाॅंत, बाल मानो काली घटा का साया, रेशमी दुपट्टा लहराते हुए मेरे सामने से चला जा रहा था,देखते ही मंत्रमुग्ध- सा हो बस एकटक...तब तक देखता रहा जब तक कि वह आॅंखों से ओझल नहीं हो गया.उसी पल मेरे दिल में कुछ कुछ होने लगा. शायद मुझे पहली नजर वाला प्यार हो गया. प्यार है ही ऐसी अद्भुत रोग जिसे लग जाए वही इसके असर को जान पाता है. मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मैं इसकी गिरफ्त में आ जाऊँगा. खैर! अब जब मैं इसका रोगी हो ही गया तो इस रोग के लक्षण दिखना भी लाजमी था. घंटों आइने के सामने खड़ा रहता...जहाँ पहले कुछ भी पहन कर कालेज चला जाता था अब सज संवर कर जाने लगा...अब तो मेरी किताबों वाली...ब्लेक एण्ड वाइट रंग की दुनिया अचानक से सतरंगी हो गई थी. यहाॅं की हर चीज सुंदर मनमोहक लगती है. दोस्तों से पता चला कि जिस पर मैं फिदा था...काॅलेज में नयी आई है, नाम काव्या है. अब तो बस हर रोज पढ़ने के लिए नहीं बल्कि उसकी एक झलक पाने को ही काॅलेज जाना होता था.न जाने कैसा जादू था. नजरें केवल उसी को ढ़ूंढ़ ती रहतीं पर, उससे नजर टकरा जाए तो अचकचाकर कहीं और देखने लगता.
हर रोज मन ही मन सोच कर जाता कि आज मैं उसे अपनी दिल की बात बोल ही दूॅगा, पर उसके सामने जाते ही मानो मेरी घिग्घी बंध जाती और मुॅंह से एक शब्द भी न निकलता.अब तो मेरे दोस्त भी मुझे काव्या के नाम से छेड़ने लगे थे.पर सच कहें तो मुझे उनके छेड़ने पर बुरा नहीं लगता था बल्कि एक अलग ही खुशी का अनुभव करता था.शायद इसे ही प्यार कहते हैं.ऐसे ही प्यार के दरिया में डूबते उतराते अभी कुछ दिन भी ना गुजर पाये थे कि, उस मनहूस खबर ने मुझे अंदर तक तोड़ दिया.काव्या के पापा का ट्रांसफर हो गया था और काव्या मेरे हाल-ए-दिल का बयां सुने बिना ही वह मुझसे हमेशा हमेशा के लिए दूर हो गई. और मैं आह भी न भर सका था.हफ्तों....महीनों अवसाद में डूबा रहा फिर जैसे- तैसे हकीकत की जमीन पर अपने आप को संभालते हुए पैर रखा और अपने लक्ष्य को निर्धारित कर पूरा करने केवल उसी पर ध्यान देने अपना पूरा मन पढ़ाई पर लगा दिया.धीरे-धीरे समय के साथ सफलता दर सफलता हासिल करता गया. पर न जाने क्यों दिल वह खुशी महसूस ना कर पाया जो वह करना चाहता था.जिंदगी की दौड़ में दौड़ते हुए कितने साल गुजर गए पर काव्या मेरे जेहन से कभी गई ही नहीं थी.दिल के किसी कोने में सदा ही उसका बसेरा रहा,और आज जब विनोद का रियूनियन पार्टी का इनविटेशन आया तो केवल और केवल काव्या का चेहरा आॅंखों में उभर आया. और उससे मिलने और देखने की ख्वाहिश ही मेरा वहाँ जाने का मकसद हो गया अपनी यादों के समंदर में गोते लगाते हुए मैं उस समारोह में पहुॅंच ही गया.
"हे! सिद्धार्थ बडी...कैसे हो? "-परमिन्दर ने गर्मजोशी से गले लगाते हुए कहा.
"अरे ! परमिंदर और बता कैसा है? "मैं तो चंगा हूंँ यारा.
हरीश, विनोद, नवीन,शाहिद....सब तो आए थे.
मेरे जिगरी दोस्तों से मिलकर लगा ही नहीं कि पच्चीस साल गुजर गए हैं. वक्त थम- सा गया है और वही दिन फिर जी उठे हैं. बस वक्त की लकीरें सभी के चेहरों पर उभर आईं थी. कहने को तो मैं अपने पुराने मित्रों से मिलजुल रहा था, पर मेरी आॅंखों को तो बस उसका ही इंतजार था.और उसे ही देखना चाहती थी. हर आहट पर कानों में सरगम के सितार बजे, उठते कहीं यह वह तो नहीं....हर गुजरते पल मेरी दिल की धड़कनों को बढ़ा रहे थे.पार्टी पूरे शबाब पर थी, नाच गाना, खाना, मस्ती सब चल रहे थे. और वक्त धीरे धीरे सरक रहा था और मैं चाहकर भी रोक नहीं पा रहा था.
बस भगवान से प्रार्थना कर रहा था कि बस उसकी एक झलक पा लूं....
गुजरते वक्त के साथ,...अब तो दिल और दिमाग में जंग सी छिड़ गई थी.दिमाग कहता वह नहीं आएगी.और दिल करता जरूर आएगी.अजीब सी कशमकश चल रही थी.
"क्यों क्या हुआ यारा? तू अकेले ऐसे क्यों खड़ा है? "-परम ने पीछे से आकर पीठ पर धौल देते हुए कहा.
"कुछ नहीं बस यूं ही....बस इतना ही कह पाया.उससे मैं काव्य के बारे में बहुत कुछ पूछना चाहता था.पर होंठ तो जैसे सिल से गए थे.
"अरे! देखो यह शिवानी ही है ना? "- विनोद ने सामने से चली आ रही युवती को देखकर कहा.
" इतनी मोटी हो गई है? या खुदा कॉलेज में तो जिम शिम जाकर फिगर मेंटेन रखती थी अब देखो तो कितना बदल गई है."-हंसते हुए शाहिद ने कहा.
"बेटा! अपनी शक्ल देख ले तू भी लंबी सी थौंद वाला बुड्ढा लगने लगा है."-शिवानी ने चढ़ते हुए कहा.
पर मैं तो वहाँ जैसे वहाँ होकर भी नहीं था. अपने ही ख्यालों में खोया था.
"क्या काव्या भी बदल गई होगी? क्या उसके गुलाबी गाल अभी वैसे ही होंगे या वक्त की लकीरें उभर आई होंगी?... क्या अब भी उसके मुस्कुराने पर गाल में डिंपल पड़ता होगा या नहीं?...क्या संगमरमर से तराशा बदन वैसे ही होगा यह समय की चर्बी ने ढक दिया होगा?..क्या उसके बाल अब भी उतने ही रेशमी होंगे या चांदी उभर आई होगी? अपने ही ख्यालों में खोया, मैं दरवाजे पर ही नजर टिकाए रहा. और आखिर वो मनहूस घड़ी भी आ गयी पर वह न आईं. पार्टी खत्म होने की घोषणा...सभी ने एकदूसरे को गले लगाया.अपने मोबाइल नंबर एक्सचेंज किए और अपनी अपनी मंजिल की ओर फिर से मिलने का वादा कर चल दिए. मैं भी अपने वापिसी के रास्ते पर चला जा रहा हूँ.पर आश्चर्य चकित हूँ... दिल में कोई मलाल या कोई शिकवा नहीं है. मैं खुश हूँ कि मेरे प्यार की जो छवि पिछले पच्चीस सालों से मेरे दिल में बसी है.वह सदा ही वैसी ही जवां रहेगी. वक्त की कोई लकीर उसे बदल नहीं पाएगी....
(मौलिक)
अर्चना राय
भेड़ाघाट,
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