मचलते हैं जो अनगिनत ख्वाब
हर रोज़ मेरी पलकों तले
उन ख्वाबों का आधार हो तुम
क्योंकि...पिता हो तुम
बहता है अधरों पर मेरे
मुस्कान का इक दरिया
उस दरिया में
जीवन का विस्तार हो तुम
हां...पिता हो तुम
मरुस्थल सी है ये बेदर्द दुनिया
इस दुनिया में मेरे लिए
प्रेम का निरंतर बरसता
धराधार हो तुम
जानते हो न….पिता हो तुम
फेर लूं नजरें
इस बेपरवाह जमाने से
झांक लूं दो घड़ी मैं भीतर अपने जान लूं आखिर कौन हो तुम
कुछ नहीं...और कुछ भी नहीं
मेरा सर्वस्व हो तुम!
इस संसार के भीतर
मेरा छोटा सा संसार हो तुम
क्योंकि... मेरे पिता हो तुम
अंकिता भार्गव
संगरिया (राजस्थान)
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
Bahut pyari kavita ...👌
शुक्रिया
एक खूबसूरत कविता।
बेहद उम्दा कविता ।
Bahut sundar
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