मेहा के भाई की शादी थी, घर में रौनक लगी थी मगर वह अनमनी सी अपने कमरे मेंं बैठी थी। यह दूसरी बार था जब लाल रंग ने मेहा के घर में दस्तक दी थी। जब उसने रणबीर के नाम की लाल चुनर ओढ़ी थी तब भी तो उससे अपनी खुशी संभाले न संभल रही थी। मगर उसकी आंखों में सजे सतरंगी सपने आकार लेते उससे पहले ही रणबीर तिरंगे मेंं लिपट कर अमर हो गया और जाते जाते मेहा को उसी तिरंगे में से सफेद रंग निकाल कर थमा गया। मां तो नहीं चाहती थीं कि जिस सफेद रंग से उनका जीवन घिरा है उससे उनकी बेटी भी लिपटी रहे मगर मेहा के लिए रणबीर की जगह किसी और को देना संभव न था। उसने मां का प्रस्ताव ठुकरा दिया।
वह अपने भाई के लिए सच में बहुत खुश थी। मगर भाई की शादी की खरीदारी में वही लाल रंग उसे रणबीर की याद दिला रहा था। अपने जीवन का निर्वात अब उसे भी खल रहा था, अपने जीवन को लेकर एक महत्वपूर्ण फैसला वह ले चुकी थी मगर...मगर मां को नहीं बता पा रही थी।
"मेहा! बेटा अब तक तैयार नहीं हुई? मंदिर चलना है न!" मां ने पूछा तो मेहा चौंक गई।
"हां मां! बस कपड़े बदलने ही जा रही थी।" मेहा ने आलमारी में से आसमानी रंग की साड़ी निकाली।
"नहीं! आज तुम ये नहीं पहनोगी!" मां ने कहा तो मेहा हैरान सी उने देखती रही।
"मेहा! रंग जिंदगी का हिस्सा होते हैं। दुख के स्याह रंग तुम देख चुकी, अब खुशियों की लाली सहेजने का वक्त है।" मां ने लाल रंग की साड़ी उसके हाथों में रख दी। मेहा को लगा अपनी बात कहने का इससे सही अवसर शायद उसे न मिले।
"हां मां! मुझे भी लगता है मेरी अंजुरी में खुशी के रंग समेटने का वक्त आ गया है मगर मेरी खुशी रंग लाल नहीं है। मेरी खुशी तो उस रंग में है जो मेरे रणबीर पर जंचता था।" उसने भारतीय थल सेना का अपना नियुक्ति पत्र मां को दिखाया। मां ने मेहा की आंखों में देखा वहां सिर्फ़ रणबीर के प्रेम का रंग रंग
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