स्वरचित मौलिक,अप्रकाशित एवंअप्रसारित कविता
शीर्षक-"आम तमाम"
बौर आ गए हैं आम्र तरु पर
कोयलिया कुहू कुहू कुहुकी
स्वाद अनूठे लेकर आई
गर्मी में बगिया महकी
बचपन में देखे थे हमने
हरे बाग आम के खूब
गुच्छों में लटके रहते थे
हमें लुभाते थे अपरूप
बैलगाड़ी रुकवा कर बाबा
बाग की सैर कराते थे
खट्टी अमियां चुन-चुन कर वे
हमको बहुत खिलाते थे
आंगन में सूखा करती थी
कच्चे आमों की फांकें
बना खटाई अमचूरी हा!
दादी सबको थीं बांटें
पक्के आम रसीले पीले
मीठे मधुर स्वाद वाले
सिंदूरी शरबती दशहरी
और लंगड़े सब मतवाले
राम का नाम लुभाए
फलों का है सचमुच राजा
आम की फितरत मुझसे कहती
आजा तू मुझको खाजा
गूदा,गुठली सब भाते हैं
होते भाग्यवान के नाम
सारे जग में लोकप्रिय हैं
स्वाद से भरे हुए तमाम
खट्टा मीठा पापड़ हो
या आम पना शेक,कैंडी
पूजा हवन भी रहे अधूरा
मिले न गर इसकी डंडी
हिंदी की अक्षरमाला से
जुड़े हुए हैं इसके तार
ऐसे मधुर रसीले फल को
नमन करूं मैं बारंबार
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स्वरचित-स्वरचित लेख -डॉ.अंजु लता सिंह गहलौत
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