स्वरचित गीत
बदलते दौर :बदलते रिश्ते
बदलते दौर ने रिश्तों पर कहर ढाया है
आपसी प्यार दरकता सा नजर आया है
जिधर भी देखो दर्दे दिल ही उभर आया है
हर एक शख्स पर उदासियों का साया है
खुशबू रिश्तों की फैलती नहीं पहले सी अब
मम्मी अब्बू से भला डरते हैं बच्चे भी कब?
भाई बहनों के बीच दूरियां बढ़ती जातीं
नाना नानी से किस्से सुनते न नातिन नाती
दादा दादी की कहानी में रस नहीं आता
कार्टून देखते रहते और दिन गुजर जाता
नौकरी पेशा हो गए हैं अभिभावक सारे
क्रैच में रहकर शिशु गिनते हैं दिन में तारे
पालती पोसती सिस्टर जी, घर में आया है
आपसी प्यार दरकता सा नजर आया है
बदलते दौर ने रिश्तों पर कहर ढाया है.....
पिया के घर में वधू बेटी ही कहानी लगी
सास मम्मी बनी इस रिश्ते को निभाने लगी
आत्मनिर्भर हैं, पढ़े लिक्खे घर के लोग सभी
थोड़ी इगो भी पाल रखी है इन्होंने तभी
घरेलू सेवकों के बिन काम नहीं चलता है
पालतू पशुओं से मानव का दिल बहलता है
युवतियां नाम ना लेतीं पति को बेबी कहें
मियां डरते हैं सभी पत्नियों को देवी कहें
हर ओर उल्टा सा ही राग नजर आया है
बदलते दौर ने रिश्तों पर कहर ढाया है
मदर,फादर के डे ही बच्चे मनाते हैं अब
बालकों से मिले सम्मान का अलग है ढब
फिर भी रिश्तों में क्यों खिंचाव नजर आया है?
बदलते दौर ने रिश्तों पर कहर ढाया है
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(मौलिक एवं स्वरचित)
©
( सर्वाधिकार सुरक्षित)
लेखिका- डॉ. अंजु लता सिंह गहलौत, नई दिल्ली
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