शीर्षक
"परी हूँ मैं अपने पापा की"
परी हूं मैं अपने पापा की मुझको उन पर नाज है
पंख बिना ही उड़ती फिरती मस्त मेरी परवाज है
मेरे तन-मन और जीवन में उनका ही है गहन असर
सदाचार, सहयोग, सुबुद्धि संग रहे हैं आठ पहर
पद चिन्हों पर चलकर उनके सफल मेरे कल आज हैं
परी हूं मैं....
पढ़ने लिखने का जज्बा जब जागा था मेरे मन में
थिरक थिरक कर गायन वादन,भला लगा था यौवन में
प्रेरित करके कहा कलाओं का भी सभ्य समाज है
कुशल कलाकार भी अब तो बादशाह बेताज है
परी हूं मैं...
अनुशासन में रहकर ही,मैंने तो सारे काम किये
शौक किये पूरे सब अपने, पापा जी के नाम किये
उनसे ही तो सीखा मैंने,जीने का अंदाज है
सोपानों पर मिली सफलता का बस ये ही राज है
परी हूँ मैं...
भुला नहीं सकती पापा को,वह अनुपम वरदान रहे
इस भारत-भूमि पर आकर लगते राम और श्याम रहे
वो ही मेरे मानस,भगवद्गीता और नमाज हैं
उनकी प्रेरक बातों से तो मन मेरा आबाद है
परी हूं मैं..
शाबाशी देते थे मुझको,जब मैं अव्वल आती थी
मेरी हर शैतानी भी जाने क्यों उनको भाती थी
सफल रहूं मैं,सर पर मेरे हरदम सजता ताज है
मेरे सिर पर उनके ही हर शुभाशीष का हाथ है
परी हूँ मैं ...
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रचयिता
अंजु लता सिंह गहलौत, नई दिल्ली
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